हिरोशिमा की गवाही, हिबाक्शा की ज़बानी।
हिबाक्शा: कोदाका मियोको, बमबारी के समय उम्र 20 वर्ष।
बमबारी के समय वे ग्राउंड ज़ीरो से लगभग 1.9 किलोमीटर दूर एनोकोबाशी-चो में थीं।
कोदाका मियोको (91वर्ष) बमबारी के समय उम्र 20 वर्ष । क्योतो निवासी । रिकोर्डिंग: 29 सितम्बर 2015
मार्केट की एक दुकान की मिट्टी के फर्श पर मैं चावल धो रही थी, तब अचानक तेज़ रौशनी हुई। जब होश आया तो पता चला कि मैं पड़ोसी घर की तीसरी मंजिल पर थी।
मियोको कोदाका (91वर्ष) बमबारी के समय उम्र 20 वर्ष। क्योतो निवासी। रिकोर्डिंग:29 सितम्बर 2015।
पीड़ितों में बच्चे, बूढ़े, आदमी और औरत का फर्क ही पता नहीं चल रहा था। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि वे इंसान हैं। वह नज़ारा जीते जागते नर्क के सामान था।
मियोको कोदाका जी बमबारी के प्रभाव से ग्रस्त रहीं। अणुबम रोग प्रमाणीकरण के मुकदमों में अग्रही रहीं और अनुमोदित करवाया।
हिरोशिमा में जीवन।
अप्रैल में मेरे पति का अपने काम में स्थानांतरण हुआ और कहीं दूसरी जगह वे चले गए। वैसे वे पहले हिरोशिमा में ही काम करते थे।
मैंने उनसे पूछा 'आप कहाँ जा रहे हैं ?', तो जवाब मिला ' मुझे भी मालूम नहीं।' सब कुछ गोपनीय था।
उन्होंने कहा ' मुझे भी मालूम नहीं। लेकिन बुलावा आया है इसलिए जा रहा हूँ। अब तुम्हें अकेले ही रहना होगा। '
यह सुनकर मुझे दुःख हुआ। उस समय कुरे में कई हवाई हमले हो चुके थे और मैं अकेले नहीं रहना चाहती थी।
मैंने सामान वहीं छोड़ा, ताला लगाया और पड़ोस की लुहारन काकी को भी बिना बताए यमागुची प्रीफेक्चर चली गई।
यामागुची में माँ के भाई - बहन रहते थे।मुझे लगता है मैं वहाँ लगभग दस दिन रही।
मकान मालिक ने लुहारन काकी से कहा ' इस घर में किसी भी समय जाओ, कोई नहीं होता। कुछ कीजिए। सामान भी बिखरा पड़ा है। '
तो काकी ने जवाब दिया, ' अगर यह बात है तो, मैं रख लेती हूँ। ' और वे सारा सामान अपने घर ले आईं ।
फिर एक दिन जब मैंने काकी से पूछा ' मैं यह मच्छी ले कर कहाँ जाऊं ', तो जवाब मिला ' तुम्हें अब जाने की कोई जगह नहीं है। '
मैं ऊपर आती हूँ। ' कहकर जब ऊपर गई तो यह देखकर मैं चौंक गई कि कमरा मेरे सामान से भरा पड़ा था। यह 1 अगस्त की बात है।
सेगावा जी नामक लुहार के यहाँ, दादी, मेरे पिताजी के चचेरे भाई और उनकी पत्नी हानाको जी रहते थे।
हानाको जी की एक 19 वर्षीय बेटी थी, तोशीए, जो मुझसे एक साल छोटी थी।
उससे छोटी एक और बेटी थी, आक्को, जो हाई स्कूल पास कर शायद डिप्लोमा कर रही थी।
आक्को से छोटा 4 साल का तोशीनोबु था। 6 जन का परिवार था। मैं वहाँ 6 दिन रही।
6 अगस्त।
पुराने समय में रसोईघर कमरे के साथ लगा नहीं होता था। लंबी रसोई का फ़र्श मिट्टी या पत्थर से बना होता था और बिना गेता (लकड़ी से बने चप्पल) पहने चल पाना नामुमकिन था।
दादी तातामी चटाई पर बैठकर खाना खा रही थीं। मैं दूसरी ओर नल के पानी से अच्छे से चावल धो रही थी।
तभी दादी ने कहा, ' मियोको, तुम्हारे लिए अच्छा है। कोई मुश्किल ही नहीं है।' जब मैंने पूछा 'आपको कैसी मुश्किल?'
तो दादी ने जवाब दिया, ' अभी हम लोग चावल गुप्त रूप से खरीदते हैं। 20 येन है जो कि महँगा है। लेकिन तुमने तो कभी इस बारे में सोचा ही नहीं होगा। '
' कभी नहीं सोचा।' मैंने कुछ ऐसा ही कहा था कि 8:15 पर तेज़ रौशनी कौंधी।
वह इतनी तेज़ थी कि मैं आँखें भी नहीं खोल पा रही थी। बिजली चमकने से कुछ अलग तेज़ रोशनी थी।
मैं इसके बारे में सोच ही रही थी कि काकी ' तोशीनोबु ' कहते हुए दौड़ते हुए आई। मुझे अभी भी अच्छे से याद है।
मैंने अपने आप को संभाला और सब को आस पास ढूँढ़ने लगी। उस समय मार्केट की गली सँकरी थी और सब घर तीन मंजिला होते थे।
जैसे कि डिपार्टमेंट स्टोर की छतों पर बगीचे बने होते हैं, पड़ोस के तीन मंजिले घर की छत पर भी बगीचा था।
बमबारी के कारण पड़ोस का घर कभी भी गिर सकता था, फिर भी दो मंजिले घर की उँचाई अभी भी थी।
' मैं यहाँ कैसे आ गई। ' सोचकर लकड़ी के अपने घर की ओर देखा तो वह पूरा तहस नहस हो चुका था।
बगल की घड़ी वाली दुकान भी चरमरा रही थी। मैं नीचे उतर कर बाहर आई।
सबसे पहले घर के नीचे दब गए 3 लोगों को बचाना था। मैंने सबसे छोटे 4 साल के तोशीनोबु को आवाज़ दी।
बच्चे कैसी भी संकरी जगह से निकल आते हैं। तोशीनोबु भी आ गया।
मैंने उससे कहा, ' तोशीनोबु चान, यहाँ से कहीं मत जाना। मैं दादी और दीदी को ढूँढ़ने जा रही हूँ, तुम यहीं रहना। '
फिर मैंने ' तोशिए जी, तोशिए जी ' आवाज़ लगाई l 19 वर्षीय तोशिए जी को टीबी थी, और जब बम गिरा वे सो रही थीं।l
मैंने कहा ' तोशिए जी, यहाँ कुछ छेद जैसी जगह में मैं हाथ डाल रही हूँ, अगर आप मेरा हाथ देख पा रही हैं तो पकड़ लीजिए। '
' हो सकता है चेहरे या कहीं पर चोट लगे, पर जान बच जाएगी। मैं आप को खींच लूँगी, आप भी आने की कोशिश करें। '
तभी तोशिए जी की आवाज़ आई, ' दीदी, मुझे निकाल लीजिए। ' मैंने झट से हाथ पकड़ा और हईशा कर खींचा।
तोशिए जी को भी ज्यादा चोट नहीं लगी थी। मैंने कहा ' अब दादी को ढूँढ़ना है। आप यहीं रहिए। ' जब मैंने दादी को आवाज़ लगाई तो जवाब मिला, ' मियोको, मुझे बचा लो, बचा लो। '
मैंने पूछा, ' आप कहाँ हैं ? ' ढूँढ़ने पर भी वे नहीं मिलीं। आखिरकार एक बड़े बड़ेरे के नीचे दबी मिलीं।
उनकी हालत देख मैं हैरान रह गई।
अगर मैंने ज़रा भी हिलाया तो ऊपर की सब चीज़ें नीचे आ गिरेंगी। मैं भी मर जाऊँगी और दूसरे लोग भी।
मैंने कहा, ' दादी थोड़ा रुको, तकलीफ़ होगी पर थोड़ा रुको '
दादी का परिवार पिछले सौ सालों से लोहे की चीज़ों बेच रहा है, इसलिए आस पास के सभी लोग दादी को जानते थे।
घर पर ही बम गिराया गया था। मैंने सोचा पड़ोस के लोगों से मदद मांगती हूँ।
' सेगावा के यहाँ की दादी मलबे में दब गई हैं, मेरी मदद कीजिए।' मैं कहते हुए दौड़ कर बाहर आई।
बमबारी के तुरंत बाद के हालात
जब बाहर निकल कर देखा तो चेहरे से लेकर हाथों तक लोगों का सारा शरीर जल गया था। चमड़ी लटक रही थी।
चमड़ी लटकने के कारण सभी लोग हाथों को आगे की ओर फैलाए हुए थे। लोग अपनी आँखें खोल नहीं पा रहे थे।
आदमी, औरत, बच्चों में कुछ फर्क नहीं था। लाखों लोग एक ओर, मेरी ओर चलते हुए आ रहे थे।
मैं हिरोशिमा स्टेशन की विपरीत दिशा में खड़ी थी। यह क्या है ? कितना भयावह है। वह नज़ारा जीते जागते नर्क के समान था। मैंने सोचा आखिर हुआ क्या है !
मैं दादी की मदद करना भूल गई और उन लोगों को एक एक करके देखने लगी। दर्द के कारण वे कराह भी नहीं पा रहे थे। केवल चुपचाप दोनों हाथों को आगे की ओर फैलाए, प्रेत की तरह चल रहे थे।
मुझे लगा कुछ भयानक हुआ है।
दादी को बचाना ही है सोचकर, वहाँ खड़े कुछ हष्ट पुष्ट दिखने वाले 3 सिपाही को मैंने आवाज़ लगाई l ' सिपाही जी '
मेरी उम्र बीस वर्ष रही होगी और मैं दिखने में भी सुंदर थी। मुझे लगा वे तुरंत मेरी मदद को आएँगे।
जब मैंने उनसे कहा, ' सिपाही जी, माफ़ कीजिएगा, मेरी दादी मलबे में फँस गई हैं। मेरी मदद कीजिए।'
तो जवाब मिला, ' पागल हो गई हो क्या। अभी पूरे हिरोशिमा के 2 लाख तीस हजार लोग मलबे में पड़े हैं। केवल तुम ही नहीं हो।'
उनकी बात सुनकर मुझे एहसास हुआ कि दूसरों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। कोई मर रहा हो , तो भी उसे बचाने के लिए लोग नहीं आते।
मैंने सोचा मुझे अब अपने आप ही दादी को बचाना होगा। दूसरे लोगों पर भरोसा नहीं करना। यही सोच मैं लौट आई।
लेकिन क्या करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा था। कैसे इस बड़ी लकड़ी को हटाया जा सकता है मुझे समझ नहीं आया।
आस पास देखा तो शीशे के टुकड़े गिरे पड़े थे, लकड़ियों के तुकड़े भी गिरे पड़े थे। घर के अन्दर का हाल भी बहुत खराब था।
उस समय के बच्चे के खिलौने, टिन या लोहे के नहीं, लकड़ी के बने होते थे।
किस्मत की बात है, लकड़ी से बनी एक बड़ी बस, बड़ेरे के अन्दर की ओर फँसी हुई थी। उस बस के ऊपर बड़ेरे का खाँबा था।
मैंने सोचा ' बस यही है। नीचे तो केवल मिट्टी है ' मुझे पहली बार एहसास हुआ कि मिट्टी तो जितना चाहे खोद सकते हैं।
' दादी मैं आपको बचा लूँगी। आप हार मत मानना। ' कहते हुए शीशे के टूटे तुकड़ों को हटाते हुए मैं आगे बढ़ने लगी।
उन शीशों के तुकड़ों से मुझे यहाँ वहाँ चोट तो ज़रूर लगी होगी, पर अजीब बात है कि मुझे दर्द महसूस ही नहीं हो रहा था।
मैं वहाँ सीधे लेट गई और, दादी के पास की जगह को हाथ से खोदने लगी।
पर मेरे हाथ बहुत छोटे हैं। काश मेरे हाथ थोड़े बड़े होते तो कितना अच्छा होता यह सोचते हुए मैं खोद रही थी।
मैं खोद तो रही थी, पर यह सोचकर कि अभी और मदद चाहिए मैं बाहर निकल आई।
तभी एक व्यक्ति, जिनका चेहरा पूरा जल चुका था, मेरे पास आया।
मैंने पूछा, ' कौन ?', तो पता चला कि ये तो हानाको काकी हैं जिनके साथ मैं सुबह 6 बजे तक थी। मैंने पूछा, 'काकी', तो उन्होनें कहा, 'हाँ, मैं हूँ।'
उनकी बहुत ही दयनीय हालत थी। मैंने कहा, ' काकी, यह क्या हो गया। अपना ध्यान रखो। '
जवाब मिला, ' मुझे बच्चों और दादी की चिंता हो रही है।' मैंने उन्हें आश्वासन दिया, ' मैं ज़रूर उन्हें बचा लूँगी।'
प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में भी केवल लाल घोल ही मिल रहा था। फिर भी
मैंने काकी से कहा, ' काकी आप प्राथमिक चिकित्सा केंद्र जाइए। बच्चों और दादी को मैं ज़रूर बचा लूँगी।' काकी, 'ठीक है ' कहकर प्राथमिक चिकित्सा केंद्र की ओर चली गई।
मैं फिर खोदने लगी। तभी दादी का शरीर कुछ हिला। ' दादी हिम्मत मत हारना ' कहते हुए जब उन्हें खींचकर निकाला तो वे एकदम उठकर बैठ गईं ।
उस समय दादी की उम्र कुछ 64- 65 रही होगी। अगर वैसा कुछ आज के ज़माने में होता तो उस उम्र का व्यक्ति अचम्भे से ही मर जाता।
उनमें शायद ज़बरदस्त जिजीभिषा थी कि जीना तो है ही, इसीलिए वे एकदम उठीं, "
और कहा, ' मियोको, कहीं और बचके निकलते हैं, ग्रमन के लड़ाकू हवाई जहाज़ फिर से बमबारी करेंगे, कहीं और चलते हैं।'
दादी कहीं और चलने को कह रही थीं, और मुझे अपने पति के सामान का ध्यान आया।
सैनिक तलवर से लेकर पानी की बोतल, चमड़े का बैग, दूरबीन तक, सब सामान की ज़रूरत पड़ सकती है। इसलिए वे घर पर रखकर गए थे।
अगर वे फिर कहीं जाने के समय मुझसे कहें कि ' मुझे जाना है, मेरे सामन निकालो ' और मैं यह कहूँ कि ' सामान नहीं है।' तो एक सिपाही की पत्नी के नाते मेरे लिए शर्मनाक बात होगी।
बस यही संस्कार शायद मुझे अच्छे मिले थे। मैंने कहा, ' दादी, माफ़ कीजिएगा, ले जाने के लिए कुछ सामान है। मुझे एक बार घर लौटना होगा।'
दादी ने कहा, ' वापिस मत जाओ। फिर से बमबारी होगी, आग लग जाएगी l ' तो मैंने जवाब दिया, ' मैं नहीं मरूँगी। मैं ज़रूर लौट कर आऊँगी।'
मैं उस समय 5 महीने पेट से थी। इसलिए मैंने बच्चे के लंगोट, कपड़े आदि सीकर रुकसैक में डाल कर रखे थे।
विस्फोट की तेज़ हवा से वह रुकसैक भी उड़कर कमरे के कोने में जा पड़ा था।
मैं रुकसैक वगैरह चीज़ें उठा कर ले जाने लगी।
उस समय पानी की बोतल लेकर भागनेवाला कोई नहीं रहा होगा।
मेरे पति सैनिक ऑफिसर थे, इसलिए मेरे पास वह बोतल थी।
बाहर निकल मैंने फटे पानी के पाइप से पानी भरा और बोतल कांधे पर डाल दी।
तभी एक विद्यार्थिनी मेरे पास आई। उसका चेहरा बुरी तरह जल जाने के कारण उसकी उम्र का पता नहीं चल रहा था। उसने कहा, ' ज़रा पानी दीजिए।'
पानी देना कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन उसके भी माता पिता हैं।
उस समय हर घर में लोग यह बात करते थे कि अगर कुछ हुआ तो अमुक जगह सब इकट्ठे होंगे।
इसके माता पिता ज़रूर इसका इंतज़ार कर रहे होंगे। मैंने उसे लौटाने की कोशिश करना चाहा।
मैंने कहा , ' मुझे पानी देने में कुछ परेशानी नहीं है, लेकिन अभी आप पानी पिएँगी तो आप मर जाएँगी।'
इसलिए , अभी जहाँ तुम्हारे माता पिता हैं, वहाँ लौट जाओ। उनसे जाकर मिलो। इसलिए मैं तुमहें यह पानी नहीं दूँगी। '
मुझे उसकी हालत बहुत दयनीय लगी। मैंने उसे पानी देने के बारे में कई बार सोचा, लेकिन नहीं कर पाई। मुझे पता था कि वह पानी पीने पर जरूर मर जाएगी। इसलिए नहीं दे पाई।
काली बरसात।
काली बरसात शुरू हो गई थी। मुझे अब तक वह बहुत अजीब लगती है।
हिरोशिमा स्टेशन के पीछे पूर्वी फौजी प्रशिक्षण केंद्र था। बहुत बड़ा मैदान था जहाँ सिपाही लोग फौजी तर्बियत करते थे।
उस मैदान को पार कर, नाकायामा गाँव था। वहाँ मुश्किल से इकपहिया ठेला गुज़र पाने जितनी सँकरी पगडंडी थी। जब काला पानी बरसना शुरू हुआ, मैं वहाँ पहुँची ही थी।
तभी मैंने देखा मेरे पीछे की ओर एक झोंपड़ी थी। पानी बरसने लगा था। मैंने सोचा अच्छे समय झोंपड़ी दिखी है। मैं अंदर घुस गई।
बाहर की ओर मैंने देखकर सोचा, ' कितना गंदा लग रहा है। गंदगी बरस रही है।'
हाथ निकाल मैंने पानी को छूने की कोशिश की। फिर उस हल्के काले गंदे पानी को सूंघा।
मेरे पिताजी भवन- निर्माण का काम करते थे। इसलिए मुझे कोलटार की बदबू मालूम थी।
उस बारिश के पानी में मुझे पतले कोलटार की दुर्गन्ध लगी।
उसके पश्चात आधा- एक घंटा बीता होगा। घड़ी न होने के कारण सही समय बताना मुश्किल है, लेकिन बरसात रुक गई। मैंने सोचा मुझे जल्द जाना चाहिए नहीं तो दादी फिक्र करेंगी।
उस समय के शौचालय घर के बाहर होते थे। तभी एक गाँव वाला शौच की सफाई करने आ जाता था।
दादी ने उन्हें कह रखा था, ' अगर कुछ हुआ तो ज़रूर मदद कीजिएगा। ' जब मैं उनके घर गई तो दादी समेत सब लोग वहाँ सो रहे थे।
उस तंग जगह में करीब बीस लोग लेटे हुए थे। उन्हें देखकर मुझे लगा कि ये लोग ज़्यादा ज़िंदा नहीं रह सकेंगे।
प्राथमिक चिकित्सा केंद्र की घटना।
मैं पहुँची तो दादी ने खुश होते हुए कहा, ' बहुत अच्छा हुआ, तुम ठीक ठाक पहुँच गईं।'
रसोईघर में दो तीन स्वस्थ दिखने वाली औरतें कुछ काम कर रही थीं। मैंने पूछा, ' आप लोग क्या कर रही हैं ?'
8:15 पर अणुबम गिरने के बाद किसी ने कुछ नहीं खाया था। इसलिए
एक औरत ने कहा ' सब को खिलाने के लिए हम खाना बना रही हैं। ' मैंने कहा ' मैं मदद करती हूँ।'
तो जवाब मिला, ' मदद करोगी! लेकिन तुम अभी बमबारी की शिकार हुई हो न।' मैंने कहा, ' हाँ, हुई तो हूँ। '
उन्होंने कहा, ' तुम लेटकर आराम करो।' मैंने जवाब दिया, ' मैं बिल्कुल ठीक हूँ। मेरी उम्र आप सभी से कम है, मैं मदद करती हूँ।'
गर्मी का मौसम होने के कारण मेरे कपड़े पसीने से लथपथ थे। मैंने कहा, ' देखने में अच्छा तो नहीं लगेगा, पर मैं यह ऊपर के कपड़े उतारना चाहती हूँ। '
क्योंकि मैंने अन्दर केवल शमीज़ पहन रखी थी, मैंने कहा, ' मैंने केवल शमीज़ पहन रखी है, इसलिए आपको बुरा लग सकता है, लेकिन मैं इन कपड़ों को उतारना चाहती हूँ। '
एक मरणासन्न-सी स्त्री ने कहा, ' अरे नहीं, हमें बुरा नहीं लगेगा। ' तो मैंने उसी वक़्त वहाँ ऊपर के कपड़े उतार दिए।
तभी वहाँ लेटे हुए किसी आदमी ने कहा, ' मैडम, पीठ।' मैंने पूछा ' क्या हुआ मेरी पीठ को ?', तो जवाब मिला, 'ऊपर से नीचे तक खून से लहूलुहान है।'
अपनी पीठ नहीं दिख रही थी, इसलिए मैंने कहा, ' अच्छा !लेकिन कोई बात नहीं क्योंकि न तो दर्द हो रहा है, न खुजली। '
उन्होंने कहा, ' क्या आप ऐसे ही छोड़ देंगी। कुछ दवा वगैरह नहीं लगाएँगी ?' लेकिन तब तक ज़ख्म सूख चुके थे।
उस समय अगस्त वाली गर्मी थी। ज़ख्म सूखकर पपड़ी बन गए थे। मैंने कहा, ' कोई बात नहीं।' और उनकी मदद करने लगी।
अभी बहुत समय था। गंभीर रूप से घायल लोग सो रहे थे। उस घर से कुछ दूर आगे एक प्राथमिक चिकित्सा केंद्र था जहाँ उपचार हो रहा था या गंभीर रूप से घायल लोग लेटे हुए थे।
मैंने वहाँ का हाल जानने के लिए जाने का सोचा। वह एक स्कूल का सभागृह था।
पूरे सभागृह में चटाइयाँ बिछी हुई थीं। वहाँ पर कई गम्भीर रूप से घायल लोगों को
आदमी, औरत, बच्चों, बूढों को वहाँ लेटाया गया था।
सभी के चहरे जले हुए थे, एवं सभी के चहरे एक जैसे लग रहे थे।
तभी देखा पीठ पर रुकसैक लादे एक आदमी हाथ हिलाकर मुझे बुला रहा था। सभागृह से बाहर आकर मैंने पूछा, ' क्या हुआ।'
तो, ' थोड़ी देर पहले जहाँ मैं खड़ा था, वहाँ मेरी विद्यार्थिनी बेटी पड़ी हुई है।'
शायद उन्हें आख़िरकार यह पता चल गया था कि उनकी बेटी यहाँ है। उनकी पत्नी का बमबारी से मौके पर देहांत हो गया था।
वे कब से अपनी बेटी को ढूँढ़ रहे थे और वह यहाँ मिल गई थी। जब उन्होनें अपनी बेटी से कहा 'देखो, पिताजी आए हैं ', तो उसने पूछा कि, 'माँ कहाँ हैं ?'
उनकी बेटी के पास अब ज्यादा समय नहीं बचा था। वह ' माँ, माँ पुकार रही थी।'
उन्होंने कहा, ' मैडम, मुझे माफ़ कीजिएगा। मेरी बेटी को अब कुछ नज़र नहीं आ रहा है। आप बस उसे नाम से पुकार लीजिए। उसे लगेगा उसकी माँ ने पुकारा हैं। '
मैं अभी केवल 20 वर्ष की ही थी। मैंने कहा, ' मैं यहाँ नहीं कर पाऊँगी।' लेकिन उन्होंने कई बार विनती की, ' आप बस उसका नाम ले लीजिए। '
उनकी दयनीय अवस्था मुझसे देखी नहीं गई। मैं गई और पुकारा, 'बेटा ', और मुझे जवाब मिला, ' तुम मेरी माँ नहीं हो।'
आखिर बच्चों को माँ की आवाज़ की पहचान होती है। ' तुम मेरी माँ नहीं हो।' कहने के कुछ देर बाद ही उस बच्ची ने दम तोड़ दिया।
पति के दोस्त के घर की ओर
मेरे पति से या पता नहीं कहाँ से सूचना मिली थी।
लोग हमें बुला रहे थे, 'आप हमारे घर आ जाइए। अनजान लोगों के घर रुकना भी कठिन होगा।'
मैंने फिर से पूर्वी फौजी प्रशिक्षण केंद्र को पार किया। अब शव नहीं दिख रहे थे।
लगभग 100 शवों को एक दूसरे के ऊपर लादकर जलाया जा रहा था। यहाँ वहाँ केवल शव ही जल रहे थे।
मैं हिरोशिमा स्टेशन तक पहुँची। चलते हुए मैंने देखा कि सँकरी सडकों पर भी शवों के ढेर लगे हैं।
पहले तो मैं देखकर डर गई, लेकिन 5-10 मिनट बाद मैं शवों को बिना घबराए हुए इस तरह देखने लगी कि
इन काका को तो कोई चोट भी नहीं आई है, फिर भी मर गए हैं। उस माँ के नीचे उनका बच्चा दबके मर गया है।
मैं अकेले ही देखते हुए चल रही थी। मैंने सोचा, 'आदमी ऐसा जानवर ही हैं।'
153,1,00:23:12,00:23:21, ,0,"शुरू में मैं डर के मारे काँप गई थी, लेकिन कई दसों, कई सौ शवों को देखने के बाद मैं अब आराम से देख रही थी।"
शायद इसीलिए लोग युद्ध करते हैं। नहीं तो कैसे उन लोगों को मार सकते हैं जिन्हें हमने कभी देखा नहीं, कभी मिले नहीं।
जिन्हें कोक्रोच से भी डर लगता हो, वे इंसान को कैसे मार सकते। लेकिन लोग बेगुनाह इनसान का आराम से कत्ल करते हैं।
मैं सोचते हुए चल रही थी कि शायद लोग इसीलिए युद्ध करते हैं। वह एक बहुत ही भयानक दृश्य था।
मैं दो दिन उस गाँव वालों के घर में रही। वे मुझे लेने आए थे। आठ को गई और 9 अगस्त मैं वहाँ रही।
माँ से पुनर्मिलन।
वहाँ कोलोनी की कमेटी के एक मुखिया से दिखने वाले आदमी आए। उस वक्त युद्ध समाप्त हो चुका था।
इसलिए उन्होनें कहा, 'अगर अमरीकी सिपाही यहाँ आ गए तो बहुत ख़तरा है। अगर जाने की जगह है तो औरतें और लड़कियाँ यहाँ से भाग जाएँ। '
मैं उस समय 7 महीने पेट से थी और मेरा पेट भी अब काफी दिखने लगा था। मैं घरवालों को 'धन्यवाद' कह निकल गई।
उस समय यामागुची तक ट्रेन चलती थी। मैं यामागुची प्रिफेक्चर के यानाई पर ट्रेन से उतरी और वहाँ से बस पकड़ी।
तानातोगे तक पहुँचकर बस खराब हो गई और ड्राइवर ने मुसाफिरों से धक्का लगाने को कहा।
मेरा पेट भी निकल रहा था और सामान होने के कारण मैं धक्का नहीं लगा पाई। चढ़ाई के रास्ते पर मैं चल भी नहीं पा रही थी। मेरे पास वहाँ रुकने के अलावा कोई रास्ता नहीं था।
इसलिए मैंने लोगों से पूछा, ' क्या आप सागा गाँव के सेकिया जी को जानते हैं ? '
एक औरत ने कहा, ' मैं सेकीया जी को अच्छी तरह जानती हूँ।'
मैंने कहा, 'माफ़ कीजिएगा, मैं कुछ परेशानी में हूँ। क्या आप सेकिया जी के घर में सूचित कर सकती हैं कि वे किसी आदमी को मुझे लेने के लिए भेज दें।'
मैं इंतज़ार कर रही थी कि दो इकपहिया ठेला लिए दो नौजवान लोग मुझे लेने आ गए।
मैंने सोचा कि मैंने अपने माता पिता को खो दिया है। माँ, ' ,मियोको सान, तुम जिंदा हो।' कह मुझसे लिपट पडीं।
उन्होंने कहा , 'तुम्हारे शरीर में ज़हर भरा पडा है। अभी नहाने आओ। मैं सारा ज़हर बहा देती हूँ। ' पता नहीं कहाँ से बह गया, लेकिन उन्होंने मुझे नहलाया।
माँ और पिताजी का घर हम छोड़कर कोरिया चले गए थे, इसलिए घर पुराना था, लेकिन कुछ नुकसान नहीं पहुँचा था।
मैंने अपने ननिहाल में बच्चे को जन्म दिया। प्रसूति तो थी लेकिन कोई डाक्टर वाक्टर नहीं था। कोई दाई को पकड ले आया था और मैंने बच्चे को जन्म दिया।
यह सब हुआ। फिर मेरे पति भी वापिस आ गए और हम लोग तोक्यो में रहने लगे।
उस समय कुछ बुरा नहीं था। हमने यह भी नहीं सोचा कि अणुबम से हम बीमार पड़ जाएँगे। हम कुछ नहीं सोच रहे थे।
अणुबम का प्रभाव।
मैं जब तक तोक्यो में थी, अणुबम का कोई प्रभाव नज़र नहीं आया। क्योतो के घर में मेरे पति करोना नाम का स्टोव जलाकर किमोनो पर चित्रकारी करने का काम लगन से करते थे।
मैं पास बैठ कीमोनो सुखाती थी। उस समय मेरी तबीयत खराब होनी शुरू हुई। मेरा उलटी करने का मन होता था।
कीमती सफ़ेद किमोनो पर उलटी कर उसे बर्बाद नहीं कर सकती थी।
इसलिए मैंने अपने पति से जब कहा कि 'मेरा जी मिचला रहा है। क्या मैं ज़रा लेट जाऊँ। ', तो वे मुझे घूरकर देखने लगे।
पुराने समय के पति ऐसे ही होते थे। फिर वे युद्ध से भी वापिस आए थे। इसलिए शायद उन्हें लगा कि मैं यूँही बातें बना रही हूँ।
मुझे वे घूर रहे थे, लेकिन मेरा भी जी मिचलाने के कारण बुरा हाल हो रहा था।
मैं दौड़कर दूसरे कमरे में गई और उलटी की। मैं वहीं लेट गई और 5 बजे तक वहीं लेटी रही।
मैंने साइकिल चलानी सीखी। हिगाशी मुकोमाची में साइकिल रख, हान्क्यू लाईन से शिजो ओमिया तक जाती।
वहाँ से पैदल चलकर मैं निशि तोइन, हिगाशी तोइन की किमोनो की दुकानों में जाती।
इसे ऐसा बना दीजिए। ऐसे कर दीजिए।' ऐसी दुकानों में जाकर यह सब बोलने का काम मेरा ही था।
एक बार मेरे पति कहते, 'लौटते हुए बीफ स्टीक लेटे आना।' वे केवल शिजो ओमिया की एक नामी दुकान का ही माँस खाते थे। कहते 'उसी दुकान का खाना है। '
मुझे वहाँ तक जाना पड़ता था। एक बार दुकान पहुँचकर जब मैंने कहा, ' बीफ स्टीक दे दीजिए', तब मेरा फिर जी मिचलाने लगा।
खाने की चीज़ बेचनेवाले के यहाँ उलटी करना अनुचित होगा। यह सोचकर मैं बाहर निकल आई। बाहर भी लोगों की आवाजाही होने की वजह से मैं उलटी नहीं कर पाई। उस समय मेरा चेहरा पीला पड़ गया होगा।
किसी तरह अपने पर काबू पाकर मैंने माँस खरीदा। मेरा इतना बुरा हाल था कि मुझे नहीं मालूम मैं कैसे स्टेशन तक पहुँची।
ट्रेन से हिगाशी मुकोमाची तक आकर, साइकिल से घर आते हुए
मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और मैं चक्कर खा गिर गई।
अस्पताल पहुँचकर मैंने कहा, 'मुझे चोट लग गई है l कुछ कीजिए। '
डॉक्टर ने पूछा कि आपको कैसे चक्कर आ गया। मैंने जवाब दिया, 'मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और पता ही नहीं चला मैं कब गिर गई।'
डॉक्टर ने कहा, 'यह तो अजीब बात है। ऐसा अमूमन होता नहीं है। क्या आपको कभी कोई भयानक बीमारी हुई है ?'. तो मैंने कहा ' जी, नहीं '
फिर डॉक्टर ने कहा, 'आपके खून की जाँच करा लेते हैं। ' मैंने खून की जाँच करा ली।
डॉक्टर ने कहा, ' यह तो बेहद अजीब बात है। अगर ऐसी ही हालत रही तो आप मर जाएँगी। आपके अन्दर खून की बहुत कमी है। '
अगर आप ऐसे ही काम करती रहीं तो मर जाएँगी। आपको तुरंत ही खून चढ़ाना होगा। '
मेरे पति ने कहा, 'तुमहें पता है न ! पता नहीं कहाँ से किसका खून चढ़ेगा।'
यह कोई मज़ाक़ की बात नहीं है। मैं इसकी मंज़ूरी नहीं दे सकता। ' मैंने सोचा कि मेरे मरने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।
मैंने अपने पति की मंज़ूरी के बिना कुछ नहीं कर सकती। मैंने यह कहकर लौट आई कि मुझे खून नहीं चढ़वाना है।
अगले दिन मुझे फिर से पति के काम से जाना था।
डॉक्टर ने कहा, 'आप कुछ समय रुकिए तो। एक बार रुक जाइए। ' जब मैं रुकी तो उन्होंने कहा, ' बहुत अच्छा हुआ। आपके लिए एक अच्छी दवाई मिल गई है। '
वह एक खून बढ़ानेवाली, मस्चिजेन नाम की दवाई थी।
डॉक्टर ने कहा, ' अभी यह दवाई खा लीजिए। जब हालत कुछ बेहतर होगी तो इंजेक्शन लगाएँगे। आपको हर दिन आना है। ' मैंने पूरा एक महीना अस्पताल के चक्कर लगाए।
मैं धीरे धीरे ठीक होने लगी, और चक्कर भी आने बंद हो गए।
फिर भी मैं कभी कभी एकदम से गिर पड़ती थी। उस समय घर पर पति के शिष्य रहते थे।
वे मेरी हालत देख हैरान हो जाते और बिस्तर लगाकर कहते, 'आप यहाँ सो जाइए। केवल आराम कीजिए। '
अक्सर ऐसा होता था। लेकिन ऐसे मौके पर मेरे पति घर पर न थे।
मेरे पति हमेशा यह सोचते थे कि मैं कभी बीमार नहीं पड़ सकती।
एक बार मैं बाथरूम गई। वहाँ वाशिंग मशीन भी रखी हुई थी। जगह सँकरी थी। मुझे लगा ही था कि मैं गिर पड़ूँगी, और मैं असल में गिर गई। वहाँ भारी चोट भी लग सकती थी।
जब मैं गिरी पहली बार मेरे पति वहाँ थे। उन्होनें दरवाज़ा खोला और तेज़ आवाज़ में पूछा, ' क्या हुआ ?' मुझे उनकी तेज़ आवाज़ सुनाई दे रही थी।
मैंने जवाब देने की कोशिश की, लेकिन नहीं दे पाई। ज़िंदगी में पहली बार मेरे पति ने मेरे लिए बिस्तर लगाया और मुझे वहाँ लेटाया l
तभी मेरे पति के दोस्त आ गए। उन्होंने फोन कर डॉक्टर को बुलाया और मुझे इंजेक्शन लगा। तब हालत कुछ बेहतर हुई।
अणुबम रोग के प्रमाणीकरण का मुक़दमा।
मैं कान्साई के अभियोगी संघटन की लीडर बन गई।
9 लोगों में मैं उम्र में सब से बड़ी थी, लेकिन सभी शारीरिक रूप से कमजोर थे।
जब जज के सामने हम लोग उपस्थित हुए थे, तब मेरे अलावा सभी लोग सर झुकाकर
केवल यही कह पाते, ' हम अणुबम के शिकार हुए हैं। हमने काफी कुछ सहा है। '
मेरा स्वभाव तो आप जानते ही हैं। इसलिए मैंने कहा, ' यह ऐसा कोई मज़ाक नहीं है। मेरे लिए सब कुछ बर्दाश्त के बाहर की बात थी। बताओ न, तुम लोग भी कितनी परेशानी से गुज़रे हो। '
मेरे लिए एक वकील काम करने लगा। उसने एक दिन छपा हुआ कागज़ मुझे लाकर दिया और कहा, ' आप सबसे आखिर में जाएँगी। इसको पढ़ दीजिएगा। '
उस कागज़ पर केवल यह लिखा था, ' मैं मियोको कोदाका हूँ। 1945 में अणु बमबारी के समय मैं 5 महीने पेट से थी।'
मैंने सोचा यह क्या है। चूँकि मुझे पढ़ने के लिए कहा गया था, मैंने न्यायाधीश के सामने पढ़ा।
मेरे पढ़ चुकने के बाद जब वकील मेरी व्हीलचेयर खींचने लगे तो मैंने कहा, ' मुझे मत ले जाइए।'
अभी मेरी बात ख़त्म नहीं हुई है। मेरे पास कहने के लिए अभी बहुत कुछ है, इसलिए अभी मत ले जाइए। '
मैंने कहा, ' अभी तक मैंने बहुत सब्र से काम लिया क्योंकि मैंने सोचा कि मैं यह नहीं कर पाऊँगी। अगर यहाँ मेरी बात सुनने के लिए लोग हैं तो मैं ज़रूर सच बात कहूँगी।'
मैंने न्यायाधीश के सामने आकर कहा, ' जज साहब, मुझे मालूम है कि आप बहुत व्यस्त होंगे और आपके पास समय नहीं होगा।'
लेकिन मेरे पास और कोई चारा नहीं है। मैंने जैसा पढ़ा वैसा बिल्कुल नहीं था। अब मैं आपको साफ़ साफ़ बताती हूँ।
मैंने पूछा, ' आप जज साहब हैं तो आपकी उम्र लगभग 60 वर्ष होगी तो उन्होंने 'हाँ' में जवाब दिया। '
फिर तो आप मेरे दामाद की उम्र के हुए। हमारी उम्र में इतना अन्तर है।
बहरहाल, चूँकि आप पैदा ही नहीं हुए थे, आपको अणुबम के बारे में कुछ पता नहीं है। जब आप उसके बारे में जानते ही नहीं है, ज़ाहिर सी बात है कि आप उस चीज़ के बारे में बात नहीं कर सकते।
अणुबम की निर्ममता के बारे में आप कुछ नहीं कह सकते।
मैंने कहा, ' अणुबम इतना निर्मम था कि केवल बात मात्र करने से ही आँसू बहने लगते हैं। '
जब मैं उस स्कूल की बच्ची की बात करती हूँ जिसने पानी माँगा था, मेरे आँसू थमते ही नहीं हैं।
मैं बिल्कुल माफ नहीं कर सकती। हम कतई नहीं चाहते कि ऐसा कभी दोबारा हो। यह अपनी रक्षा करने या न करने की बात नहीं है। '
मैंने रोते हुए कहा, ' यह पूरे विश्व में कहीं नहीं होना चाहिए।'
न्यायाधीश ने कहा ' मैं समझ गया' और हम मुक़दमा जीत गए l
वकील लोगोंने मेरी ओर देख हाथ हिलाया, मैंने भी हाथ हिलाकर जवाब दिया।
ये वकील लोग अपने खर्चे पर ट्रेन से ओसाका आते और हमारा साहस बढ़ाते।
मैं यह सोच फिर से रो पड़ी कि ये वकील इस देश से लड़कर जीत गए, अब वे कितने खुश होंगे।
मेरा संदेश।
लड़ने की ज़रुरत पड़ने पर कुछ करना पड़ता है। बेकार की बातें सुनकर कभी कभी तो गोली मारने का भी मन करता होगा।
लेकिन उससे बड़े-बड़े लोग कभी नहीं मरते।
मेरे बड़े भाई भी चूओ विश्विद्यालय में पढ़कर वकील बनने ही वाले थे कि उन्हें युद्ध में जाना पड़ा और वे शहीद हो गए।
मेरे भाई बहन सब मर गए, हमारी जायदाद हमसे छीन ली गई, हम अणुबम के शिकार हुए।
एक के बाद एक मैंने बहुत त्रासदियाँ झेली हैं।
इसीलिए मैं युवा से यह कहना चाहती हूँ कि कभी युद्ध का समर्थन मत करना। कभी युद्ध को रोचक मत समझना।
बीते 70 साल जापान एक शांतिपूर्ण देश रहा है। फिर क्यों हमें युद्ध करने जैसी स्थिति पैदा करनी है।
इसलिए मैं चाहती हूँ कि सब युद्ध का खंडन करें। अगर यह हमने नहीं किया तो हम सभी को सिपाही बनाकर युद्ध में धकेल दिया जाएगा।
मेरे तीन पड़पोते- पोतियाँ हैं। इस सोच से ही मैं सिहर उठती हूँ।
अभी भी यहाँ वहाँ झगड़े विवाद होते रहते हैं। हम क्यों करते हैं ये सब। क्या हम शांतिपूर्ण तरीके से नहीं रह सकते।
यह मेरा देश है, यहाँ से निकल जाओ, ये मेरा है वह तुम्हारा है।' यह सब छोड़कर क्या हम मिलजुलकर नहीं रह सकते? हम सभी मिलजुलकर रहेंगे।
अणुबम गवाह : मियोको कोदाका (रिकोर्डिंग के समय उम्र : 91 वर्ष)
परियोजना एवं प्रस्तुति : हिरोशिमा राष्ट्रीय अणुबम पीड़ित शांति स्मारक
अनुवाद : डॉ. अनुश्री
अनुवाद निरीक्षण: डॉ. आकिरा ताकाहाशी
अनुवाद समन्वय : NET- GTAS (अणुबम पीड़ित गवाही के ग्लोबलाइजेशन के लिए अनुवादक नेटवर्क ) |