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फुमिको आमानो  (AMANO Fumiko)
लिंग महिला  बमबारी के समय उम्र 14  
रिकार्डिंग की तिथि 2011.10.18  रिकार्डिंग के समय की उम्र 80 
बमबारी के समय स्थिति हिरोशिमा 
Hall site अणु-बमबारी पीड़ितों के लिये हिरोशिमा नेशनल पीस मेमोरियल हॉल 
Dubbed in Hindi/
With Hindi subtitles
With Hindi subtitles 
7 अगस्त, भोर होने से पहले आमानो फुमिको अपने परिवार को खोजने हिरोशिमा गईं l वे उस समय 14 वर्ष की थीं l हिरोशिमा जो कि मृतकों का शहर बन गया था , उसे देखकर उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि युद्ध कितना हिंसक होता है l वे आखिरकार अपने परिवार से तो मिल पाईं किन्तु उनके बुरी तरह से जख्मी  बड़े भाई ने 6 महीने पश्चात तड़प तड़प कर दम तोड़ दिया  l आमानो फुमिको का मानना है कि बमबारी में बच गए लोगों के लिए उसे भूलना एवं उसके प्रति चुप्पी दोनों ही अक्षम्य हैl वे अपनी संतुष्टि के लिए अंतरराज्यीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर  परिसाक्ष्य अभियान में सक्रिय हैं l
 
[ विस्फोट के एक दिन पहले] 
पूर्ण रूप से स्वस्थ न होने के कारण मेरे बड़े भाई सेना में भर्ती होने की शारीरिक परीक्षा में तीसरी श्रेणी से ही उत्तीर्ण हुए l लेकिन आदेश मिलने पर कमज़ोर होने के बावजूद भी उन्हें एताजिमा के हितोनोसे गाँव में स्थित सैनिक अड्डे में भर्ती होने के लिए जाना पड़ा  l आखिरकार एक महीने में ही उनकी हालत काफी गंभीर हो गई l  उन्हें ऑपरेशन की  जरूरत पड़ गई और 1 अगस्त को वे हिरोशिमा लौट आए l 6 अगस्त को सुबह साढ़े सात बजे अस्पताल में भर्ती करने के लिए हमें ठेले में उनका बिस्तर लगाकर शिमा अस्पताल लेकर जाना था l पिछले दिन 5 अगस्त की शाम को माँ ने मुझसे कहा, ‘ हवाई बमबारी का अलार्म बंद हो गया है , ज़रा चलो l ’वे मुझे लेकर शिमा अस्पताल गईं l वह बहुत अँधेरी रात थी और बहुत सारे टूटते  तारे दिख रहे थे l टूटते तारों को देखते  हुए मैंने  कहा ‘ माँ, आज कुछ अजीब सी शांति है l ’ हमारे सीधे हाथ की ओर हिरोशिमा औद्योगिक वृद्धि हॉल था जो कि 11 घंटे बाद हिरोशिमा अणु बमबारी स्मारक में बदलने वाला था l उसे देखते हुए हम शिमा अस्पताल पहुँचे l
 
जब माँ ने  पूछा ‘ कल सुबह आएँगे l ठीक है न l ’  तो युवा नर्स ने कहा ‘बिलकुल ठीक l सब व्यवस्था हो गई है l ’चिंतामुक्त हो माँ  नर्स को ‘बहुत धन्यवाद’ कहकर वापिस लौटने लगीं l जब माँ दरवाज़ा बंद करने लगीं, तब अंदर से हेड नर्स आई, और कहा  कल हेड डॉक्टर शिमा काओरु जी अपने मित्र के अस्पताल जो कि देहात में है, वहाँ  ओपरेशन के लिए जाएँगेl  वे साल में एक बार वहाँ जाते हैं l ’‘इसलिए आप 7 अगस्त को भी अपने बेटे को भर्ती कर  सकती हैं l ’ हेड नर्स की इस बात ने मुझे बचा लिया l
 
[ बमबारी के दिन के हालात ]
6 अगस्त की सुबह, हालाँकि भाई के साथ अस्पताल में रहने के लिए मैंने एक सप्ताह की छुट्टी ले ली थी किन्तु काम न होने पर भी  बाकी सभी लोग कारखाने जा रहे थे, इसलिए मैंने भी जाने का निर्णय लिया l मैंने सामान्य से एक लेट ट्रेन ली l मैं कारखाने पहुँच गई और मैं अपने कार्यस्थल के लोहे के ढाँचे वाले कमरे में अकेली ही थीl जैसे ही अणुबम गिरा, बहुत तेज़ विस्फोट हुआ l उस आवाज़ और प्रकाश को [पिकादोन ] कहते हैं, किन्तु कौन सा [पिका ] था और कौन सा [दोन] उस समय बिलकुल समझ नहीं आया l मुझे बहुत तेज़ झटका लगा और मैं गिर गई l तभी, ‘मैडम मुझे बचाइए’, ‘दर्द हो रहा है’ वाली आवाज़ें यहाँ वहाँ से सुनाई देने लगीं l जब मैंने आँखें खोलीं तो आस-पास धुआँ ही धुआँ था l
 
अध्यापक ने हमें इकट्ठा होने को कहा और चौकीदारों से झगड़ा कर हमें पहाड़ के ऊपर ले जाया गया l किन्तु पहाड़ के ऊपर से दिखा हिरोशिमा धुएँ में जल रहा था l उन्होंने कहा  ‘यह ठीक नहीं है l ’ हम लोग वापिस कारखाने लौटे और वहीं अलग हुए l अध्यापक ने कहा ‘हिरोशिमा के लोग लौट जाएँ l ’ मैंने अपनी सहेली का हाथ अच्छे से पकड़ा और हम रेल की पटरी पर  जल्दी जल्दी चलते हुए स्टेशन के पिछली ओर तक पहुँचे l हम लोग भीड़ को हटा हटा कर आगे बढ़ रहे थे l तभी देखा आगे हँसिया लगे डंडे को पकड़े सिपाही खड़े थे l ‘पागल हो क्या ! मरने जा रही हो l उस ओर जाओ l ’ उन्होंने हमें हटाते हुए कहा l सिपाही भी बिलकुल घबराए हुए थे l
 
[परिवार की खोज]
मैं जलती हुई आग को देख रही थी l सुबह मैं भी शायद वहीं होती l मेरे लिए सोचना भी मुश्किल था कि मैं भी वहाँ मरकर जल रही होती l मैंने यह सोचा भी नहीं था कि शिमा अस्पताल बमबारी के केंद्र में था l मैंने सोचा कि आसमान  को इतना जला देने वाली आग से अस्पताल भी पूरा जल जाता और मैं भी मर जाती l रात के 3 -4 बजे तक बचकर भागने वाले लोग भी सब भाग चुके थे और आग भी थोड़ी कम होने लगी थी l
 
गर्मियों की धुंधली सुबह थी और उस ओर कहीं कहीं आग लगी हुई थी l यह सोचकर कि आग बुझ गई होगी मैं स्टेशन से शहर की ओर चलने लगी l स्टेशन से पुल पार करते ही मेरा घर है l किन्तु वहाँ पर केवल लाशें ही लाशें थीं l कुछ ऐसी लाशें भी थीं जिनको छपरे या लोहे की  चादर से ढक दिया गया था l मैं उन लाशों को देखती हुई जा रही थी कि इनमें कहीं मेरी माँ और भाई न हो l मैं देखना नहीं चाहती थी किन्तु बिना देखे रह भी नहीं पा रही थी l मैं लाशों के सामने हाथ जोड़ती व फिर से अपनी माँ और भाई को ढूँढ़ने लग जाती l तभी वह सब मेरे लिए असहनीय होने लगा और मैं बैठ गई l मैं और नहीं चल पा रही थी l
 
मुझे ऐसा लगा जैसे माँ मुझे हमेशा की तरह 'फुमी चान, अच्छा हुआ आज भी तुम ठीक हो l ' कहकर पुकार रही हों l मुझे लगा जैसे माँ जिंदा हैं और जब मैंने एकदम देखा तो माँ वहाँ नहीं थीं l किन्तु मेरी आँखों के सामने एक बहुत ही सुंदर युवती आँखें खोले, दोनों हाथों को सामने की ओर बाँधे मरी हुई थी l वे लेटी हुई थीं व मेरी ओर देख रही थीं l मैंने एक और ऐसी युवती का चेहरा देखा था l शुक्केईएन बाग के गेट के पास l हिरोशिमा उच्च न्यायालय के गेट के पास भी दो लाशें देखीं जो साफ़ सुथरी दिख रही थींl
 
पता नहीं वे क्यों मर गए थे किन्तु उनकी आँखें खुली थीं l मैंने उनकी आँखों में देखा और मै अचम्भित हो खड़ी हो गई थी l उन नज़रों ने मुझे कचोट डाला l मैंने पहली बार हिरोशिमा शहर पर नज़र दौड़ाई l दूसरी ओर फुकुया डिपार्टमेंट स्टोर और चूगोकु अखबार की इमारतें थीं l वहाँ पर केवल मैं अकेले ही जीवित खड़ी थी l बहुत ही डरावना अनुभव था l केवल मैं अकेले जीवित थी l उस समय पहली बार मैंने सोचा कि ‘क्या है यह? युद्ध तो हत्या है l  पूर्वी एशिया की शांति के लिए युद्ध एक सरासर झूठ है l’ मुझे उस वक़्त पहली बार युद्ध की असलियत के बारे में पता चला l इसलिए उसी दिन और उसी क्षण मेरे लिए युद्ध समाप्त हुआ l
 
[ परिवार से पुनर्मिलन ]
एक महिला ने जिसका मुँह काला हो चुका था, मझे आवाज़ दी l ‘तुम फुमी चान ही हो न !’ वे मेरी पड़ोसिन थीं l तुम्हारे माता पिता बाँस के झुरमुट की ओर बचकर दौड़े थे l वहाँ जाकर देखो l वे शायद जिंदा हों l ओह!! मैं जैसे ही 5-6 कदम चली, सामने से मेरे पिताजी आ गए l उनके सिर पर बंधा अंगोछा खून से सना हुआ था, किन्तु वे ठीक- ठाक लगे l उन्होंने कहा ‘फुमिको क्या तुम जिंदा हो l’ मैंने कसकर पिताजी का हाथ पकड़ लिया l मैं अब उनके बिना चल नहीं पा रही थी l मेरे माता पिता का जीवित रहना किसी चमत्कार से कम नहीं था l माँ ने कहा ‘अगर घर नहीं गए तो यह पता नहीं चलेगा कि हिदेजो ने रात कहाँ बिताई l जल्दी घर लौट चलते हैं l ’
 
कुछ देर बाद दूसरी ओर से नंगे पाँव, तिकोना रुमाल बाँधे, मोटा सा बाँस का डंडा पकड़े एक आदमी चलते हुए आया l उसका मुँह बिलकुल काला हो चुका था l ह एक जीती जागती लकड़ी की तलवार की तरह लग रहा था l जैसे जैसे वह पास आया ऐसा लगा वह हमें पहचान गया था l वह ठीक से हाथ नहीं उठा पा रहा था लेकिन सीधे हाथ से अच्छे से डंडा पकड़े चला आ रहा था l वे मेरे बड़े भाई थे l पास जाकर जब मैंने  ‘भैया ’ कहकर पुकारा तो उन्होंने ‘हाँ’ कहकर उत्तर दिया l मैं भी और माता पिता भी विस्मित हो अवाक रह गए l हमारे पास शब्द नहीं थे l
 
[ आँखों देखा हाल/ तबाही ]
शुक्केईएन के अंदर ऐसे बहुत से लोग थे जो जल कर मर गए थे l वहाँ एक स्ट्रेचर ढोने वाला व्यक्ति था l स्ट्रेचर पर पेड़ की डंडी- सी दिखनेवाली कोई चीज़ थी  l ध्यान से देखने पर पता चला कि वह एक शव था जो जलकर काली डंडी की तरह दिख रहा था l एक के बाद एक ऐसे कई शव आए जिनका शुक्केईएन के सामने वाले चीड़ के पेड़ों के बीच में ढेर लगा दिया गया l देखते ही देखते वहाँ एक पहाड़- सा बन गया और उसके सबसे ऊपर कोर्ट के जज  साहब की नौकरानी  का शव था l
 
जब हम लोग राशन लेने जाते थे, वे हमेशा ‘ ये हमारे खेत के हैं l ’ कहकर हमें टमाटर देती थीं l मैं उन्हें वहाँ देख अचम्भित हो गई थी l मैंने जैसे ही शवों के बीच उन्हें देखा, मुझसे रहा नहीं गया और पूरी ताकत से उन्हें खींचने लगी l जले हुए शव एक दूसरे से चिपके हुए थे l जब मैं जबरदस्ती \Nखींचने लगी तो एक आदमी ने कहा ‘ ऐसा मत कीजिए l ये सब मर चुके हैं l फिर भी आप ऐसे जोर से हटाएँगी तो इन बेचारों को दर्द होगा l’
 
शाम को मैं देगची जैसे ज़रूरी सामान को पीठ पर लादे हुए थी l बड़े भाई और पिताजी भी साथ थे। पिताजी माँ को अपनी पीठ पर लादे हुए थे। हम साकाए पुल के ऊपर तक आए l हम पाँच लोग थे l हमारे साथ एक स्त्री भी थीं जिन्होंने कहा कि उनके पति घर नहीं लौटे हैं, इसलिए वे गाँव वापिस जाना चाहती हैं l जब पुल के ऊपर से हिरोशिमा शहर को देखा , तो यहाँ वहाँ  से जलते हुए शवों का जामुनी धुआँ दिखाई दे रहा था l पिताजी माँ को उठाए हुए थे l  माँ ने हाथ जोड़कर सिर झुकाया और ‘ नामान्दाबू नामान्दाबू ’कहकर धर्मसूत्र का जप किया l शाम को मैं जब भी अकेली होती थी, मुझे वह दृश्य याद आता था l वह बहुत ही पीड़ादायक होता था  l
 
अगले दिन हम ट्रेन से कोताची शहर गए l कोताची स्टेशन पर बहुत से लोग मदद के लिए आए हुए थे l भाई को तुरंत ही ट्रक में बिठाकर स्कूल ले जाया गया और उनकी पट्टी की गई l उसके बाद हम लोग सीधा गाँव के घर गए l
 
[भाई की मृत्यु ]
16 अगस्त की सुबह छोटा भाई घर लौटा और उसने कहा, ‘ जापान हार गया l ’ मैं जल्दी से घर के सामान रखनेवाले कमरे में लेटे बड़े भाई के पास गईl मैंने सोचा कि इतनी नाजुक हालत में लेटे हुए भाई को मैं यह नहीं कह पाऊँगी कि जापान हार गया l मैंने कहा ‘भैया, युद्ध खत्म हो गया l जापान जीत गया l’ मुझे यह नहीं पता कि इतनी भयानक बमबारी होने के बावजूद भैया ने मेरी बात पर विश्वास किया कि नहीं l भैया कुछ भी कहने की हालत में नहीं थे l
 
उनकी स्थिति भयावह थी l उनकी चोट पर रोज़ कीड़े पड़ रहे थे l वे कुछ खा नहीं पा रहे थे ओर न ही इलाज हो पा रहा था l चोट लगी सुर्ख जगह दिन ब दिन फैलती जा रही थी l इस ओर तो चोट काली, भूरी और  नीली हो चुकी थी l 19 अगस्त तक वह सुर्ख रंग छाती के नीचे पेट तक पहुँच गया था l उस दिन करीब 1 बजे, भैया ने उनको उठाकर बिठाने का इशारा किया l आखिर यह सच है कि लोग मरने से पहले उठकर बैठना चाहते हैं l जब मैंने उठाया तो उनकी धीमी सी आवाज़ आई ‘दर्द ... l ’ सिर्फ एक ही शब्द l
 
मैंने जब से गवाही देनी शुरू की है, जापान तो क्या जापान के आक्रमण में मारे गए एशिया के लोग, और युद्ध के पश्चात भी क्षतिग्रस्त लोगों का ‘दर्द’, भैया के उस 'दर्द' के साथ मेरे दिल में चुभता है l ‘जापान हार गया’ इस ऐतिहासिक सत्य को मैंने भैया को नहीं बताया l अब सोचती हूँ कि मरते हुए भाई को मुझे सच बता देना चाहिए था l किन्तु शायद मैं भी आखिरकार सैन्य मनोवृत्ति की एक साधारण युवती ही थी l
 
7 अगस्त की सुबह का वह क्षण, 16 अगस्त को भाई को सच न बता पाना, एवं भाई का वह आखिरी शब्द ‘दर्द’, आज मेरे अस्तित्व के केन्द्रबिन्दु हैं l अत्यंत दुख की बात है लेकिन ये बातें आजीवन मेरे लिए  महत्त्वपूर्ण रहेंगी l
 
[मेरा संदेश ]
एक दिन तानाका तेरुमी जी जो अभी निहोन हिदानक्यो (जापानी अणुबम एवं हाइड्रोजन बम पीड़ित संगठन ) के महासचिव का काम कर रही हैं, रिपोर्ट लेकर आईं और मुझसे कहा ‘आप संयुक्त राष्ट्र संघ के नि:शस्त्रीकरण बैठक के विशेष सत्र में जाइए l’ जब मैंने कहा ‘मैं अमरीका नहीं जाना चाहती l ’, तो तानाका जी ने कहा ‘आप ईसाई हैं न l अमरीका जाकर देखिए कि वहाँ ईसाई महिलाएँ बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं l’ उन्होंने कहा ‘आप माँ हैं न l आप नर्सरी स्कूल की प्रधानाचार्य हैं न l ’ मैंने उस समय कुछ उत्तर नहीं दिया l लेकिन रातभर उस रिपोर्ट को पढ़ा l
 
रिपोर्ट के आखिरी पन्ने पर लिखा था ‘जीना या भूलना ’ l इस ‘जीना या भूलना ’ का अर्थ है कि अगर आप जीवित होने पर भी चुप हैं तो इसका मतलब यह है कि आप सब कुछ भूल गए हैं l जो जीवित हैं उन्हें ‘भूलने’ का अधिकार नहीं है l मैंने सोचा कि उन्हें ‘चुप रहने’  का अधिकार भी नहीं हैl अगली सुबह मेरी बात सुनने से पहले ही मेरे पति ने कहा ‘ तुमने तीर्थयात्रा को इस्रैल जाने के लिए पैसे  इकट्ठे किए हुए हैं न l तुम क्यों न उन पैसों से अमरीका हो आओ l ’
 
इस तरह मैंने अमरीका में अपने अनुभव के बारे में बताना शुरू किया l मुझे लगता है कि अमरीका में मुझे बहुत सुकून मिला l संवेदनशील लोगों को मैं अपनी बात समझा  पाई l उन्होंने मुझे गले लगाया, कुछ मेरे साथ रोए और कहा ‘अणुबम उन्मूलन के लिए हम साथ लड़ेंगे l ’ वह अनुभव साम्प्रदायिक विचारधाराओं  से ऊपर था l मैं एक धार्मिक NGO की सदस्य थी, परन्तु जापानी लोगों ने भी भले ही वे बौद्ध धर्म के अनुयायी हों, सहयोग दिया l यह बहुत अच्छी बात थी l
 
हिरोशिमा की गवाही की जो यात्रा है वह मेरे लिए प्रायश्चित्त की यात्रा भी रही है l संक्षेप में कहूँ तो मुझे ‘जीना या भूलना ’ कथन से बहुत हिम्मत मिली l मैंने सोचा कि जीवित लोग चुप नहीं रह सकते l मैंने पाया कि इस बारे में बात कर, बहुत से लोगों से मिलकर हम इतिहास के बारे में समझ सकते हैं l केवल बीता हुआ इतिहास ही नहीं, आज के और आने वाले कल के इतिहास से जुड़ने वाले इतिहास के बारे में भी समझ सकते हैं l अपने निजी सामंजस्य के लिए मैं पहला कदम उठा पा रही हूँ l क्या केवल ‘माफ कर दीजिए’ कहना कम नहीं ? आखिर अनगिनत लोगों ने अपनी जान गँवा दी है l मैं भले ही एक युवा बालिका थी जिसे कुछ मालूम नहीं था l किन्तु मुझे लगता है कि उस ज़माने को देखे हुए लोगों की यह एक जिम्मेदारी है l भले ही कम्फर्ट वूमेन हो या जबरन मज़दूरी, अनगिनत बच्चों का शोषण हुआ है l वे बच्चे, उनके बच्चे और उनके माता पिता सभी शोषित हैं l उनका जीवन आपस में जुड़ा हुआ है l
 
मैं शायद ग्राउंड ज़ीरो में, जहाँ अणुबम गिरा था, मर गई होती l इसलिए मेरा आखिरी संदेश ग्राउंड ज़ीरो से संविधान के अनुच्छेद 9 तक है l जब मैं मलेशिया गई थी तब मुझसे कहा गया था कि जापान का शांति संविधान केवल आपका नहीं है l यह संविधान एशिया के 2 करोड़ लोगों के रक्त के प्रायश्चित्त से बना शांति संविधान है l इसलिए इसे सावधानी से संभालकर रखिए l इसलिए हमें इस संविधान को निभाना ही है l अभी जो भी समस्याएँ हैं उन पर ध्यान केंद्रित कर जब तक जीवित हूँ मैं इस बात को भूलना नहीं चाहती एवं सभी के साथ शांति के लिए काम करना चाहती हूँ l
 
प्रस्तुति: आएरास 
अनुवाद : अनुश्री अनुवाद निरीक्षण: आकिरा ताकाहाशी
अनुवाद समन्वय : NET- GTAS (अणुबम पीड़ित गवाही के ग्लोबलाइजेशन के लिए अनुवादक नेटवर्क )
  
  

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