सुज़ुको नुमाता जी, उस वक़्त 21 साल की थीं। परमाणु बम विस्फोट के समय, नुमाता जी विस्फोट स्थल से 1.3 किलोमीटर दूर, हिरोशिमा तेइशिनक्योकु की इमारत में थीं, जो अब चूगोकु यूबिनक्योकु है। आँखें चौंधिया देने वाली रौशनी के साथ वे ज़मीन पर गिर पड़ीं और अपनी बाईं टाँग खो बैठीं । नुमाता जी अब तक पाँच बार अपनी बाईं टाँग का ऑपरेशन करवा चुकी हैं और परमाणु बम के दूसरे दुष्प्रभाव भी झेल चुकी हैं। परमाणु बम पीड़ित होने के नाते, वे शान्ति का महत्व समझाने और परमाणु बम अनुभव को आने वाली पीढ़ियों के साथ साझा करने के लिए अपने अनुभव बाँटती आई हैं ।
उस सुबह, गर्मी लग रही थी इसलिए मैंने हाथ से बना सूती कपड़े का पायजामा और पतली कमीज़ पहन रखी थी । सुरक्षा टोप पहन कर और कन्धे से आपात चिकित्सा थैला लटकाए, घर में इन्तज़ार कर रही थी । तभी, 7 बजकर 31 मिनट पर, हवाई हमले की चेतावनी हटाए जाने की ख़बर आई । मोहल्ला संगठन के लोगों ने कहा, "दुश्मन का हवाई जहाज़ अब हिरोशिमा के आसमान में नहीं है इसलिए निश्चिन्त होकर अभी निकल जाओ"। माँ से विदा लेकर, पिताजी, बड़े भाई, छोटी बहन और मैं, चारों, घर से बाहर निकले। तेइशिनक्योकु के सामने पिताजी और छोटी बहन से विदा ली, और इमारत की पहली मंजिल तक जाने वाली सामने की पत्थर की सीढ़ियाँ…
ये सीढ़ियाँ?
हाँ, यही।
ये सीढ़ियाँ बच गईं, और उस दिन की स्मृति के तौर पर आज भी यहीं बनी हुई हैं। ये सीढ़ियाँ भूमितल से पहली मंज़िल तक जाती थीं और चौड़ी भी थीं। इन पर तेज़ी से चढ़ती हुई छत पर चली गई। कार्यालय की तीन महिला कर्मी अभी तक पहुँची नहीं थीं। मैं अकेली थीं। मैंने कमाण्डर साहब को "नमस्ते" कहा, तो जवाब में वे बोले, "नमस्ते। आज भी गर्मी है ना।" अचानक मैंने सोचा कि यहाँ काम करने वाले सब लोग आ जाएँगे तो सफ़ाई नहीं हो पाएगी। अकेली ही सही, सफ़ाई कर लेती हूँ। ये सोचकर मैंने सफ़ाई करना शुरू कर दिया।
2-3 दिन बाद मेरी शादी होने वाली थी। मेरे मंगेतर मार्च, 1945 के अंत से लड़ाई पर गए हुए थे। सूचना आई थी कि 8, 9 या 10 अगस्त को सरकारी काम से हिरोशिमा आएँगे। हमेशा मंगेतर तो नहीं रह सकते, इसलिए तय हुआ था कि जब दोनों परिवार मिलेंगे तो पहली मुलाक़ात के बाद ही शादी कर लेंगे। मेरा दिल ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा था। इसीलिए, सुबह अकेले ही सफ़ाई करने की ठान ली, और जी-जान से काम में जुट गई।
आख़िरकार जब सफ़ाई ख़त्म हुई तो सोचने लगी कि पोंछा कहाँ रखूँ। सोचा कि तीसरी मंज़िल के प्रसाधन कक्ष में रख देती हूँ। बाल्टी लेकर, कमरे के बाहर खड़े पुरुषों को देखते हुए, उनके पास की सीढ़ियाँ जल्दी-जल्दी उतरने लगी। फिर तीसरी मंज़िल के प्रसाधन कक्ष की तरफ़ बढ़ी। सीढ़ियाँ उतरते ही बाईं ओर प्रसाधन कक्ष था। उसके सामने के गलियारे में मैं रुक गई। वहाँ मेरी मुलाक़ात एक सहयोगी से हुई जो कि अप्रैल 1945 के अंत तक मेरे बगल में ही साथ मिलकर काम करती थी। शायद वो भी प्रसाधन कक्ष जा रही थी। जैसे ही मैं बाल्टी लेकर प्रसाधन कक्ष के अन्दर जाने लगी तो उससे मुलाक़ात हो गई। मुझे याद है मैंने उसे "नमस्ते" कहा था।
तभी, रौशनी की तेज़ चमक नज़र आई। बहुत ही सुन्दर चमक थी। अब मेरे मन में जो छवि है वो संतरी रंग की है। लेकिन उस वक़्त, बिना किसी आवाज़ के चारों तरफ़ फैली वो चमक, लाल थी या नीली या हरी, पता नहीं।
मेरी सहेली की पीठ विस्फोट स्थल की ओर थी। और मैं विस्फोट स्थल की ओर मुँह किए अपनी सहेली के सामने खड़ी थी। अचानक, कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं कहाँ हूँ। ऐसा लगा जैसे किसी अन्धेरे कमरे में हूँ। मैं हिल नहीं पा रही थी । लग रहा था जैसे कोई बहुत भारी चीज़ मेरे ऊपर पड़ी है। कोई आवाज़ भी नहीं आ रही थी।
क्या आप रौशनी की चमक के बाद गिर पड़ी थीं?
पता नहीं वो चमक मुझे किस कमरे में उड़ा कर ले गई थी। चमक के बाद धमाका मुझे उड़ा ले गया और मैं बेहोश हो गई। जब होश आया तो मैं ज़मीन पर लेटी हुई थी और किसी चीज़ से दबी हुई थी।
अचानक एक आवाज़ सुनाई दी, "कोई है?"। बेहोशी में ही मैंने उन्हें आवाज़ लगाई, "बचाओ। बचाओ।" शायद उन्होंने मेरी आवाज़ सुन ली। उन्होंने पूछा, "कौन है? अपना नाम बताओ।" मैंने बिना कुछ सोचे-समझे अपना नाम बता दिया। अचानक लगा जैसे वह आदमी, न जाने क्यों, घबरा गया। पता नहीं वे कौन थे, लेकिन ये याद है कि दो लोग थे। उन्होंने कहा, "खड़ी होकर बाहर चलो।"
लेकिन मैं खड़ी नहीं हो पा रही थी। पैर घसीट पा रही थी या नहीं, याद नहीं । आदमी ने मेरे ऊपर पड़ी चीज़ को थोड़ा हटाकर, मुझे खींचकर बाहर निकाला। उस वक़्त उन्होंने कहा, "अरे, इसका पैर", लेकिन मुझे कोई दर्द या कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। मुझे पता नहीं था कि मेरे पैर को क्या हुआ है। लग रहा था जैसे वो किसी और की बात कर रहे हैं। बस खोई हुई सी, उनकी बातें सुन रही थी।
तभी, किसी ने कहा, "मेरी पीठ पर चढ़ जाओ"। पता नहीं, मैं कैसे खड़ी हुई, कैसे उनकी पीठ पर चढ़ी। एक अजीब से रंग और अजीब सी गन्ध का धुआँ बादलों की तरह ऊपर उठ रहा था। मैंने पूछा, "क्या हुआ है?", तो जवाब मिला, "पता नहीं, इसलिए जल्दी से यहाँ से निकल चलते हैं"। तीसरी मंज़िल से भूमितल तक हम पीछे की सीढ़ियों से आए या इन्हीं से, याद नहीं है। हम इमारत के पीछे के खेल के मैदान में निकले।
उस आदमी की पीठ पर सवार, तेइशिनक्योकु के गेट के पास पहुँची। मैदान के पार, हिरोशिमा दाइहोनए, हिरोशिमा रिकुगुन योनेन गाक्को आदि इमारतें नज़र आ रही थीं। सब में से लाल लपटें उठ रही थीं। लेकिन सब कुछ क्यों जल रहा था, मैं नहीं जानती थी। आस-पास के यानागि, साकुरा, आओगिरि के पेड़ जिनके नीचे लोग आराम किया करते थे, आग की लपटों में लिपटे हुए थे। उस आदमी की पीठ पर सवार, मैंने पीछे मुड़कर देखा तो इमारतें मानो आग का सागर बनी हुई थीं। खिड़कियों से लाल लपटों को सिर निकालते और अन्दर करते देख, बस यही सोचती रही कि सब कुछ क्यों जल रहा है। मैदान के अन्दर पहुँचने तक भी मुझे पूरी तरह होश नहीं आया था। पहली बार मैदान के अन्दर देखा तो वहाँ इन्सान, इन्सान नहीं लग रहे थे।
आज भी जिस व्यक्ति का वह रूप मुझे याद है, वे हैं तीसरी मंज़िल के विभाग अध्यक्ष। वे लगभग नग्न थे। पतलून के चिथड़े हो चुके थे। उन्हें चोट लगी हुई थी और उन्होंने तौलिये जैसी कोई चीज़ सिर पर बाँध रखी थी। घायल विभाग अध्यक्ष और जान-पहचान के दूसरे लोग वहाँ नज़र आए। सबके कपड़े फटे हुए थे, बाल खड़े थे और शरीर से ख़ून बह रहा था। हाथ ऐसे करके, कुछ चिल्लाते हुए, मैदान में इधर से उधर जा रहे थे। सभी दर्द में थे और घबराए हुए भाग रहे थे।
मैदान की दूसरी तरफ़ से एक आदमी, पागलों की तरह हाथ-पैर हिलाता हुआ और चिल्लाता हुआ हमारी तरफ़ आ रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि वह कौन है। बस उसे देखती जा रही थी। जब वे धीरे-धीरे पास पहुँच गए तो देखा कि मेरे पिता थे। आख़िरकार अपनी बेटी से मिलकर निश्चिन्त हुए ही थे कि उनकी नज़र मेरे पैर पर पड़ी। मेरे बाएँ पैर की हड्डी टूट गई थी, वहाँ थोड़ा-बहुत माँस बचा था और बहुत ख़ून बह रहा था। मेरा पैर देखते ही पिताजी दूसरों को भूल गए और सिर्फ़ मेरे बारे में सोचते हुए चिल्लाने लगे, "कोई मेरी बेटी की मदद करो। कुछ लेकर आओ"। कहीं से कोई गद्दीनुमा चटाई 'तातामी' ले आया। तब पहली बार मैं लेटी। पिता जी और दूसरे घायल लोग भी मेरी मदद करते हुए, मैदान से निकलकर जलती इमारतों के बगल से गुज़र रहे थे। बिलकुल यहाँ पास से। गेट से निकलकर हमने इस जगह के आस-पास शरण ली। अब तो यहाँ हाकुशिमा रेलवे लाइन की पटरी है।
मुझे धीरे-धीरे होश आने लगा। चीज़ें साफ़ नज़र आने लगीं। आस-पास का जलता दृश्य। बहुत से लोगों की दर्दभरी आवाज़ें कानों में पड़ रही थी - "पानी। माँ, पानी। तकलीफ़ हो रही है। कोई मदद करो"। ऐसी आवाज़ें भी सुनाई दीं - "ये मर चुका है। ये भी मर गया"। लेकिन मुझे डर नहीं लग रहा था। शायद तब तक भी पूरी तरह होश नहीं आया था। धीरे-धीरे आवाज़ें और साफ़ सुनाई देने लगीं।
कुछ लोगों की कतार सामने से चलकर आ रही थी और उस दिशा में जा रही थी जिस तरफ़ मेरा सिर था। चलते-चलते वे धड़ाम से गिरकर मर जाते । ये बात मुझे बहुत अच्छी तरह याद है। किसी ने ख़ून रोकने का उपचार कर दिया जिससे ख़ून बहना बन्द हो गया और लगा कि मैं बच गई। जब ठीक से होश आया तो मेरे दाएँ पैर के पास कोई सिमटा हुआ बैठा था। उसे बुरी तरह चोट लगी हुई थी। आदमी था या औरत, मैं समझ नहीं पा रही थी। जब उसने मुझे "दीदी" कहकर पुकारा, तब समझी कि वह मेरी छोटी बहन थी।
फिर, पूरा आकाश काला हो गया और बारिश होने लगी। रंग भी याद है। मैंने सोचा नहीं था कि उस बारिश में वो ख़तरनाक पदार्थ मिले होंगे जिन्हें बाद में विकिरण का नाम मिला । बारिश, मेरे कटे हुए पैर पर और मरे हुए लोगों पर भी पड़ रही थी। कुछ बोल रहे लोगों पर भी पड़ रही थी। लेकिन सब ने कुछ वक़्त चुपचाप गुज़ारा।
फिर ये तय हुआ कि कहीं और शरण ली जाए, ताकि अगर बी-29 फिर से आ गया तो जो लोग किसी तरह बच गए थे, वे मारे न जाएँ। इस बार सबने गेट के भीतर शरण ली। जगह बहुत बड़ी नहीं थी, लेकिन तेइशिन अस्पताल साथ में ही था। पिताजी मुझे बचाने की कोशिश में कई बार अस्पताल गए। लेकिन डॉक्टर और नर्स भी घायल थे। इन्हीं में से एक बार उनकी मुलाक़ात एक डॉक्टर से हुई। वे थे डॉक्टर मिचिहिको हाचिया जो उस वक़्त अस्पताल के अध्यक्ष थे। बम विस्फोट में उन्हें भी बहुत चोट आई थी, लेकिन आख़िरकार वो तेइशिन अस्पताल पहुंच गए थे। डॉक्टर साहब के ऑपरेशन के बाद, पिताजी के अनुरोध पर, हम घने अन्धेरे में डॉक्टर साहब के घर गए। ऐसा लग रहा था जैसे कहीं बहुत दूर आ गए हैं। वहाँ सिर्फ़ एक मोमबत्ती जल रही थी। वहाँ उन्होंने मेरा पैर काटकर अलग कर दिया और उसके बाद हम तेइशिनक्योकु के द्वार पर लौट आए।
मुझे लगा कि मेरे पैर को कुछ हुआ है इसलिए मैंने पूछा, "मेरे पैर को क्या हुआ?", तो बहन ने बताया, "दीदी, आपका पैर कट गया"। उस समय मेरे दिल से निकले शब्द थे, "शादी नहीं होगी। सीढ़िया भी नहीं चढ़ पाऊँगी। काम भी नहीं कर पाऊँगी।" मैं ज़ोर ज़ोर से चीख-चिल्ला रही थी। आस-पास मौजूद घायल लोगों ने सान्त्वना देते हुए कहा, "सीढ़ियाँ भी चढ़ सकोगी। काम भी कर सकोगी। शादी भी होगी।" ये बात मुझे याद नहीं है। बाद में दूसरों से पता चला।
बम विस्फोट वाली शाम से तीन दिन तक हम वहीं पड़े रहे। द्वार के सामने की जगह पूरी तरह भरी हुई थी। वो 2-3 दिन धरती पर नर्क के समान थे। सब इसी जगह नहीं रह सकते थे। तय हुआ कि तेइशिन अस्पताल की सफ़ाई की जाए, इसलिए अगले दिन से सब भूमितल पर चले गए। मरे हुए लोग, घायल लोग, सब भूमितल में ठसाठस भरे हुए थे। हिलने तक की जगह नहीं थी। मैं उन लोगों के नीचे दबी हुई थी।
डॉक्टर मोमबत्ती और टॉर्च लेकर वहाँ आए जहाँ मैं लेटी थी । उन्होंने कहा, "इनका पैर जहाँ तक ठीक है, उसके नीचे से काट देते हैं। हो सकता है इनकी जान बच जाए"। बाद में पता चला कि 3 दिन तक देखभाल न मिलने से मेरा पैर घुटने तक पक गया था और मैं मरने की कगार पर थी। लेकिन वे चाहकर भी उस रात कुछ नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने फ़ैसला किया कि अगले दिन सुबह तक इंतज़ार करेंगे ।
10 तारीख़ को तड़के, मुझे ठीक से बेहोश किए बिना ही, जांघ की हड्डी से मेरी टाँग काट दी गई। सुना है कि पिताजी ये देख नहीं पा रहे थे इसलिए वहाँ से चले गए थे। ऑपरेशन के वक़्त मेरे सहयोगियों ने मेरे हाथ और पैर ज़ोर से पकड़ रखे थे। उन्होंने बताया कि जब पैर काटा गया तो मैं ज़ोर से चिल्लाई और बेहोश हो गई।
उसके बाद ठीक होने में डेढ़ साल का वक़्त लगा। बाकी सबकी तरह मेरे भी बाल झड़े, पेट भी ख़राब हुआ और बुख़ार भी हुआ। पैर भी, न जाने क्यों, बार-बार पक जाता था और पट्टी ऊपर तक ऐसे रंग के पस से सन जाती थी जिसे न तो हरा कह सकते थे और न ही भूरा। पस, टाँग की जोड़ तक बह जाता था पट्टी खोलने पर, पस फूट निलकता था और माँसपेशियाँ धीरे-धीरे कम होती जा रही थीं। कटी हुई हड्डी तो उतनी ही थी। जैसे-जैसे माँसपेशियाँ कम होती गईं, हड्डी 2-3 सेंटीमीटर बाहर निकल आई। तब, हड्डी काटने के लिए फिर से ऑपरेशन हुआ।उसके बाद फिर से माँसपेशियाँ घटने लगीं।आज भी याद है, माँ जो पट्टियाँ धो देती थीं, सूखने पर उन पर हरे या भूरे दाग रह जाते थे।
इसी तरह फ़रवरी, 1947 के अन्त तक 4 बार ऑपरेशन हुआ।
इस बीच, गेरुई कीड़े पैदा होने शुरू हो गए। मकानों की फ़र्श पर या लोगों के शरीर पर ये कीड़े लगने लगे। मेरे शरीर पर भी ये कीड़े चलने लगे। मेरी बाईं तरफ़, लगभग 6 से 15 सेंटीमीटर दूर, एक व्यक्ति थे जो घर के नीचे दब गए थे और अपना दायाँ हाथ खो बैठे थे। उनकी हालत दिन प्रति दिन बिगड़ती जा रही थी। उनकी दाईं बाँह पर एक बड़ा सा गेरुई कीड़ा खड़ा होकर नाचता हुआ चल रहा था। रेंग नहीं रहा था, खड़ा होकर चल रहा था। गरदन घुमाकर उसे देखते हुए मुझे डर लगता था। मैं चिल्लाती थी, "डर लग रहा है। इस गेरुई कीड़े को हटाओ।" मेरी चीख सुनकर, सब मेरे शरीर पर चल रहे कीड़े हटा देते थे। सबने उस व्यक्ति के शरीर से भी कीड़े हटाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें हटाना बहुत ही मुश्किल था। जले हुए लोगों के चेहरे, गरदन, मुँह और नाक तक में गेरुई कीड़े रेंग रहे थे। एक माँ इन कीड़ों को सहती हुई, अपने नन्हे शिशु को गोद में लिए बैठी थी। लेकिन बच्चे को गोद में लिए-लिए ही उसकी मौत हो गई। ये सच्ची घटना है। मेरे एकदम बगल में, किसी पर कीड़े चल रहे थे, तो किसी की बाँहें नहीं थीं। वो दृश्य आज भी भूली नही हूँ।
छोटी बहन की हालत मुझसे भी ख़राब थी। लगता था वो नहीं बचेगी। फेंफड़ों का तपेदिक, पाचन ग्रन्थि और पेट के रोग, तरह-तरह की बीमारियाँ हुई। एक एक करके शीशे के टुकड़े निकालने से शरीर में घाव के निशान बन गए। कॉस्मेटिक सर्जरी भी की। फिर, जिसका सबसे ज़्यादा डर था, स्तन कैंसर, वो भी हुआ और दोनों स्तन निकलवाने पड़े। उसके बाद भी बीमारियों के प्रभाव जारी रहे। बाईं तरफ़ की हँसुली कमज़ोर होकर टूट गई। और अब, बाईं बाँह, दाईं बाँह से दो गुणा बड़ी हो गई है। इस हाथ को सम्भालने में बहुत परेशानी हो रही है।
एक और चिंता की बात है। जाँच से पता चला है कि थाइरॉयड ग्रन्थि में सूजन आ रही है। छोटी बहन को भी स्तन कैंसर हुआ था। कहाँ कैंसर छिपा हो कुछ पता नहीं, इसलिए कहीं थाइरॉयड कैंसर तो नहीं, इस फ़िक्र में रोज़ डॉक्टर को दिखाने जाती हूँ। अभी जाँच का परिणाम तो नहीं आया है, लेकिन आजकल यही सब चल रहा है।
आज के लोग, शान्ति में, बिना किसी अभाव के जी रहे हैं इसलिए सन्तुष्ट हैं और कुछ जानते नहीं हैं इसलिए बेपरवाह हैं। अब तो ऐसा ज़माना है कि किस दिन अचानक कोई भयानक परमाणु हथियार तैयार कर लिया जाए और कब परमाणु युद्ध शुरू हो जाए कुछ पता नहीं। जो हमारे साथ हुआ, वो दोबारा नहीं होना चाहिए। हमारा अनुभव हमारे साथ ही मिट जाना चाहिए। युद्ध भी नहीं होना चाहिए। हमारे शान्तिवादी संविधान में ये संकल्प है कि हम किसी भी हालत में युद्ध नहीं करेंगे, लेकिन इस बात का डर है कि न जाने कब ये वादा टूट जाए। ऐसे डर में जी रहे नौजवान, किस बात पर विश्वास कर लेंगे ये सोचना भी डरावना है। युद्ध के दौरान हमें ग़लत बातों में विश्वास करने को मजबूर किया गया। मैं चाहती हूँ कि अब कोई भी ऐसी बातों पर विश्वास न करे, धोखा न खाए। इसीलिए, हम लोग जो स्थिति को ठीक से देख नहीं पाए थे, आज अपने परमाणु बम अनुभव बता रहे हैं। हम बचे हुए, जीवित लोग, अब वो चीज़ें बनते जा रहे हैं जो दूसरों को दिखाई देंगी। अपने अनुभव बताने के लिए, अध्ययन करना भी ज़रूरी है।
इसी से हम दिखाई देने लगे हैं। मैं चाहती हूँ कि युवा पीढ़ी भी इसे ख़ुद से जुड़ी बात समझकर ध्यान से अध्ययन करे। मैं अक्सर कहती हूँ, पुराने ज़माने से ही जापान में कहावत है, "जो आज किसी और के साथ हो रहा है, वो कल अपने साथ हो सकता है"। भले ही हमारा आज का दिन सही-सलामत गुज़र गया हो, लेकिन यही बात कल कहर बन कर हम पर बरस सकती है। ये मैं हमेशा सबसे कहती हूँ। हमारे आस-पास बहुत कुछ होता है। उसे दूसरे की बात, लोगों की परेशानी नहीं समझना चाहिए। हमें समझना चाहिए कि ऐसा कल हमारे साथ भी हो सकता है।
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