国立広島・長崎原爆死没者追悼平和祈念館 平和情報ネットワーク GLOBAL NETWORK JapaneaseEnglish
 
Select a language /हिन्दी(Hindi・ヒンディー語) / Video testimonial (अणु-बम हमले से जीवित बचे लोगों के द्वारा दिये गये साक्ष्य वीडियो देखें)
ओरिमेन शिगेको  (ORIMEN Shigeko)
लिंग महिला  बमबारी के समय उम्र 37  
रिकार्डिंग की तिथि 1990.8.  रिकार्डिंग के समय की उम्र 82 
बमबारी के समय स्थिति हिरोशिमा 
Hall site अणु-बमबारी पीड़ितों के लिये हिरोशिमा नेशनल पीस मेमोरियल हॉल 
Dubbed in Hindi/
With Hindi subtitles
With Hindi subtitles 
शिगेको ओरिमेन जी, उस वक़्त 37 साल की थीं। विस्फोट स्थल से 8.7 किलोमीटर दूर, साएकिगुन के हाचिमानमुरा गाँव में उन्होंने रौशनी की चमक देखी। उस दिन ओरिमेन जी, सुबह के काम निपटाकर चैन की साँस ले ही रही थीं कि हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराया गया। 7 और 8 तारीख के 2 दिन इन्होंने अपने बेटे शिगे जी को ढूँढने के लिए शहर भर में भटकते हुए बिताए। आख़िरकार, खाने के डिब्बे के साथ बेटे की लाश मिली। उस समय की कहानी को इन्होंने "काला लंचबॉक्स" शीर्षक से प्रकाशित किया है। खाने का वो डिब्बा आज भी हिरोशिमा शान्ति स्मृति संग्रहालय में देखा जा सकता है।
 
उस समय, राशन में गेहूँ और चावल के साथ सोयाबीन भी मिलने लगा था। लेकिन सोयाबीन दो या चार टुकड़ों में टूटा हुआ होता था और चावल या गेहूँ के साथ पकाकर खाना मुमकिन नहीं था। किसी ने सिखाया था कि सोयाबीन को दो बार उबालना होता है। 5 अगस्त को मैंने सोयाबीन को एक बार उबाल लिया था और चावल तथा गेहूँ भिगो कर रख दिए थे।
 
अगले दिन सुबह उठकर, मैनें लाल गेहूँ, चावल और दो बार उबाले हुए सोयाबीन मिलाकर, चूल्हे पर पकने के लिए रख दिए थे। जब मैंने शिगे को बताया कि आज सोयाबीन वाले चावल बना रही हूँ तो वो ख़ुश होकर कहने लगा, "अरे वाह! मज़ा आएगा।" खाने के डिब्बे में चावल के साथ देने के लिए मैंने आलू को पतला-पतला काट कर तेल में तल लिया था। अब हम ख़ुश होते हैं तो कहते हैं "सही है!", लेकिन उस वक़्त तो ख़ुश होने का तरीका भी सीधा-सरल  हुआ करता था।
 
6 तारीख़ की सुबह, शिगे ने ख़ुश होकर कहा, "अरे वाह!" और खाने का डिब्बा लेकर चला गया। रोज़ उससे कहती थी, "कुछ भी गड़बड़ हो तो पेट के बल लेट जाना"। उस दिन भी कहा, तो उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "हाँ, जानता हूँ"। "जानता हूँ" कहते वक़्त की उसकी मुस्कान, आज भी बुरी याद की तरह मन में बसी हुई है। 6 तारीख की गर्मी वाली सुबह की बात है।
 
उस वक़्त 14 महीने का एक छोटा बच्चा भी था जिसे उसकी नानी सम्भाल रही थीं। उसे लेने गई। पहली मंज़िल से नीचे उतरने पर तीन तातामी का लकड़ी का कमरा है। हवादार कमरा है, इसलिए बच्चे को वहाँ लेटा कर वहीं उसे दूध पिलाया। जब दूध पी कर उसका पेट भर गया तो वो गोद से उतरा और पहली बार अपने पैरों पर चला। उसने अभी तीसरा क़दम रखा ही था कि रौशनी की तेज़ चमक फैल गई। बच्चा गिर पड़ा और रोने लगा।
 
उस वक़्त मैं दाँत की डॉक्टर थी। उस कमरे में दरवाज़े, खिड़कियाँ और दीवारें, सब काँच की थीं। रौशनी की तेज़ चमक के साथ ही, काँच चटखने की आवाज़ हुई और फिर, धड़ाम और खड़-खड़ की आवाज़ें एक साथ होने लगीं। टूटने, चटखने की आवाज़ें एक साथ हुईं और वो इतनी तेज़ थीं कि बच्चा रोने लगा। पीछे बने अलग कमरे में रहने वाली मौसी जी अपने पोते के साथ थीं। वो पूछने लगीं, "क्या करें?"
 
उनके पड़ोस में आरातानी जी का मकान था। उस दिन सुबह, मेरी नानी, मौसी और आरातानी दादी जी, तीनों अपने नाती-पोतों के साथ पीछे के अलग कमरे में खेल रही थीं। सब पूछ रही थीं, "क्या करें"। सुज़ुगामिने की दिशा में ज्वालामुखी फटने जैसा बादल छाया हुआ था और ऊपर की ओर उठ रहा था। शायद हवाई जहाज़ की आवाज़ भी आई थी, लेकिन इतना डर लग रहा था कि कुछ समझ नहीं आ रहा था।
 
नानी, मौसी और आरातानी दादी जी मिलकर मकान के पिछले हिस्से में बम हमले से बचने की जगह बना रहे थे। वो जगह ऐसी थी कि उसके अन्दर आप खड़े नहीं रह सकते थे। अब सोचती हूँ तो लगता है वो किसी काम की चीज़ नहीं थी, लेकिन हमें उसे बनाने के लिए कहा गया था । गड्ढे के ऊपर पौधों के गमले रखे थे। हम सब तुरन्त उस गड्ढे में घुस गए। लेकिन नानी बिना हिले-डुले सीधे नहीं बैठ पा रही थीं। कुकुरमुत्ते की तरह छाए हुए बादल की तरफ़ आकाश में टकटकी लगाए देखती जा रही थीं। "क्या हुआ? वो क्या है?" हम देख तो रहे थे, लेकिन काँच की सारी टूटी खिड़कियों को देखकर हमें इतना डर लग रहा था कि कुछ कर नहीं पा रहे थे।
 
पहली मंज़िल और इस मंज़िल पर दंत चिकित्सा के उपकरण और छोटी बहन तथा मौसी का सामान रखा हुआ था। काँच के दरवाज़े टूट गए थे, इसलिए सामने ही सड़क थी। इतनी पास कि अगर बैठ जाएँ तो हमारे पैर सड़क को छूने लगें। सड़क पर बहुत से लोग आते-जाते हैं। काँच की खिड़की टूट जाने से सामान बाहर से दिखाई दे रहा होगा। मुझे लगा कि ये असुरक्षित भी है और देखने में भी ठीक नहीं लगता। और इस तरह तो हम बाहर भी नहीं जा सकते थे।
 
चकनाचूर हुए काँच पर सम्भल सम्भल कर चलते हुए मैं चीज़ें ठीक से रख रही थी, कि आसमान काला होने लगा। तब तक शायद एक घण्टा बीत चुका था। बादल छा गए और बारिश होने लगी, यह बारिश तेज़ नहीं थी। अचानक कागज़ के टुकड़े गिरने लगे। भारी बर्फ़ के वक़्त, ऊपर देखने से जैसा लगता है, उसी तरह कालिख जैसी कोई चीज़ गिरने लगी। वो फूलों की पंखुड़ियों जितने बड़े कागज़ के टुकड़े थे।
 
एक घण्टा नहीं, डेढ़ से दो घण्टे बीत चुके थे। बारिश हो रही थी लेकिन मौसम ठण्डा नहीं था। हद से ज़्यादा गर्मी थी। बारिश से डर नहीं लग रहा था, इसलिए बच्चे को पीठ पर उठाकर, काँच के टुकड़े उठाने, बाहर की सफ़ाई करने जैसे काम कर रही थी। बाहर घास ज़्यादा उगी हुई थी। उन दिनों, खाने की चीज़ें ज़्यादा उगाने के लिए, किनारों को भी खाली नहीं रख सकते थे। थोड़ी सब्ज़ियाँ भी उगाई हुई थीं, अंजीर का पेड़ भी था।
 
हालात का ठीक से अंदाज़ा नहीं था, इसलिए डर-डर कर बम से बचने वाले गड्ढे के अन्दर-बाहर आ-जा रही थी।
 
क़रीब साढ़े 10 बजे, परमाणु बम से घायल हुआ एक व्यक्ति, पुल पार करके घर लौट रहा था। वो कावासाका की कायोको जी थीं। ताकानो पुल के कोने पर हिरोशिमा चोकिन शिक्योकु में काम करती थीं। मैं जल्दी से दौड़ कर उनकी तरफ़ गई और पूछा, "क्या स्थिति है?" उन्होंने रोते हुए जवाब दिया, "हिरोशिमा जल रहा है। सड़कें भी बन्द हैं इसलिए वहाँ जा भी नहीं सकते।" ये सुनकर मैं तुरन्त घर लौट आई।
 
पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कि शिगे ज़रूर घर लौट आएगा। इसलिए मुझे उसका ख़याल ही नहीं आया। उसे ढूँढने जाने की बात भी नहीं सोची।
 
शायद क़रीब 3 बजे थे। किसी ने बताया, "आपका बेटा 4-5 दोस्तों के साथ आइओइ पुल से घर आ रहा था।" लगभग 3 बजे, मेरे घर के सामने से बहुत से लोग आ जा रहे थे। कोई किसी को ढूँढने जा रहा था, तो कोई घर लौट रहा था, तो कोई घायल था। किसने बताया ये तो याद नहीं, लेकिन शिगे 5-6 दोस्तों के साथ घर आ रहा है ये सुनकर मैं निश्चिन्त हो गई । मेरे दिमाग में यही बात चल रही थी, "वो ज़रूर ज़िन्दा लौट आएगा"। इसलिए शिगे आइओइ पुल पार कर रहा था ये सुनकर निश्चिन्त हो गई।
 
12 बजे स्नानघर की सफ़ाई करके, 7 तारीख की सुबह 1 बजे सोई। जब मैं सो रही थी तो अचानक लगा जैसे शिगे सड़क किनारे से मुड़कर साइकिल पर सवार घर लौट आया। साइकिल पर सवार, दोनों हाथ घिसता हुआ कह रहा था, "माँ, हाथ में दर्द हो रहा है"। मैं होती तो एक-एक हाथ घिसती, लेकिन वो अपने दोनों हाथ घिस रहा था। और फिर, हाथ घिसकर, गायब हो गया। सपने तो अजीब ही होते हैं, उनका कोई आधार तो होता नहीं। लेकिन हाथ घिसने की उसकी छवि दिखाई दे रही थी। "माँ, हाथ में दर्द हो रहा है", ऐसा कहते हुए उसने अपने हाथ घिसे और गायब हो गया।
 
पीछे छोटा सा कमरा था। अचानक याद आया तो दौड़कर वहाँ गई। सड़क पर बैठकर सोचने लगी, "अजीब बात है। सपना था क्या?" बिलकुल उसी वक़्त सैनिक फ़ुरुमोतो यासुतारो जी की पत्नी वहाँ आईं। जब मैं उधर दौड़कर गई थी तब सुबह के चार बजे थे, लेकिन अब हल्का उजाला हो गया था। उन्होंने पूछा, "कुछ पता चला?" मैंने कहा, "नहीं, कोई ख़बर नहीं। अभी ऐसा सपना देखा इसलिए दौड़कर यहाँ आई।" उन्होंने कहा, "अच्छा, ये बात है।" और सिर्फ़ इतना कहकर कहीं चली गईं। मैं घर लौट आई।
 
छोटे भाई ने कहा, "आज आपको ले चलूँगा"। सोचा कि खाने का डिब्बा तैयार कर लूँ इसलिए चावल पकाकर उनके गोले बना लिए। शिगे को पिलाने के लिए बोतल में पानी भर कर बस्ते में डाला और उसे ढूँढने निकल गई। लेकिन उसे पिला नहीं सकी, उसी तरह घर ले आई। जहाँ भी जाओ, लोग एक ही तरह की हालत में पड़े हुए थे। मदद के लिए भी कोई नहीं था। किसी ने बताया था कि आइओइ पुल से 4-5 लोग आ रहे थे, इसलिए छोटे भाई ने कहा कि वहाँ चलकर देखते हैं।

अब सोचती हूँ तो आइओइ पुल वो जगह है जहाँ समाधि शिलाएँ लगी हुई हैं। शिगे को ढूँढने आइओइ पुल गई। पुल का पश्चिमी हिस्सा पार कर करके वापस लौट रही थी कि… हेइवा ओहाशि पुल पर एक लड़का औंधे मुँह मरा पड़ा था। उसकी आँखे 1सेंटीमीटर बाहर निकली हुई थीं और वो जल कर काला हो गया था। अभी जहाँ चूगोकु अख़बार कम्पनी है, वहाँ शायद गोदाम हुआ करते थे। जिस दिन शिगे को ढूँढने गई थी, उस दिन खाद्य सामग्री से भरे टिन के डिब्बों के गिरने की आवाज़ कई बार सुनी।
 
एक और बात जो मैं भूल नहीं सकती, वो ये है, कि घर के बाहरी किनारे पर लगभग सवा दो वर्ग मीटर की एक बड़ी सी पानी की टंकी थी। उसके अन्दर 6-7 आदमी वैसे सीधे खड़े-खड़े ही मर गए थे जैसे काम करते वक़्त खड़े रहते थे। उनके तन पर कपड़े तक नहीं थे। 
 
एक और दृश्य याद है। एक बिजली का खम्बा था जो पूरी तरह गिरा नहीं था, लेकिन टेढ़ा हो गया था और उसमें बहुत देर तक आग लगी हुई थी।
 
नदी की ओर देखो तो, बहुत सारे लोग, इस तरह उसमें पड़े हुए बहते जा रहे थे। उन्हें बचाने का कोई तरीक़ा नहीं था। छोटे भाई ने कहा, "दीदी, यहाँ खड़े रहने से शिगे कहाँ है पता नहीं चलेगा। चलो आगे चलें।"
 
बम धमाके में घायल लोगों को ट्रक में भरकर ले जाया जा रहा था। अगर कोई बताता भी कि उसे निनोशिमा ले गए या उजिना ले गए, तो भी कुछ पता नहीं था कि लोगों को कहाँ ले जा रहे थे। कैसे ढूँढते? छोटे भाई ने कहा, "उजिना जाकर देखते हैं"।
 
उसकी साइकिल पर सवार होकर, रेड क्रॉस के अस्पताल गई। वहाँ दोनों तरफ़, घायल लोग ऐसे पड़े हुए थे। उनके मुँह से ख़ून निकल रहा था, शरीर सूजे हुए थे। किसी ने कहा, "पानी, पानी", लेकिन उसे पानी नहीं पिला सकी। बहुत दुख हो रहा था, लेकिन मैं तो बस शिगे की तलाश में भटक रही थी। पानी शिगे को पिलाना चाहती थी। अब सहन नहीं हो रहा था।
 
"यहाँ नहीं है, आगे चलते हैं", ये बात हुई, और हम साइकिल पर दक्षिण दिशा में चल दिए। सूरज डूब गया। कहाँ जा रहे थे समझ नहीं आ रहा था। इसलिए, कान्नोनमाचि के एक शरणार्थी शिविर में जाकर देखा, लेकिन शिगे वहाँ भी नहीं था। वहाँ के अध्यक्ष मियामोतो जी और अपने छोटे भाई, दोनों के साथ कान्नोनमाचि वापस गई, लेकिन शिगे का कहीं कोई पता नहीं चला। आख़िरकार, कोइ की तरफ़ गई। शायद यहाँ होगा, शायद वहाँ होगा, ये सोचकर सब जगह गई, लेकिन सूरज डूब गया। आख़िर में, 7 तारीख़ को पानी बोतल में लिए-लिए ही वापस लौट आई। सोचा कि शायद उस आदमी को पानी दे देना चाहिए था जो पानी मांग रहा था, पर अब क्या हो सकता था।
 
8 तारीख़ को सुबह 6 बजे किसी ने आवाज़ लगाई, "ओरिमेन जी"। उनसे सुना कि वो कल शाम को काम ख़त्म करने के बाद अपनी कम्पनी के अध्यक्ष के बेटे को ढूँढने गए थे। तब उन्हें सड़क किनारे एक सुरक्षा टोप दिखा जिसपर ओरिमेन लिखा था और किनारों से फटा हुआ बटुआ भी दिखा। वहाँ सेना के लोग काम कर रहे थे। वहाँ तरह-तरह की मदद करने वाले लोग थे। उन्होंने ओरिमेन लिखी चीज़ें जमा कर रखी थीं। उनसे पूछा कि ये किसका है, तो उन्होंने कहा, "वो वहाँ जल रहा है"। "ओरिमेन आम नाम नहीं है इसलिए सोचा कि कहीं आपके घर का तो नहीं है।" उन्होंने कहा, "मुझे और जल्दी आना चाहिए था, लेकिन बहुत देर हो गई थी, इसलिए अब सुबह आया।" उनकी बात सुनकर मैंने कहा, "अच्छा।"
 
फ़ुरुमोतो जी ने राख का एक कलश दिया। वो कलश मैंने एक कपड़े में लपेटा और पानी तथा खाने का डिब्बा लेकर फिर से ढूँढने निकल गई। लेकिन, सुबह भी चेतावनी हटाई नहीं गई थी इसलिए हिरोशिमा जाना मुश्किल था। दोपहर तक वहाँ पहुँच सकी। एक कतार से कुछ शव जलाए जा रहे थे। ऊँचाई में कुछ फ़र्क होता तो शायद समझ आता। वहाँ तो कौन सा शव है, कौन सा कचरे का ढेर है कुछ पता नहीं चल रहा था। फिर भी देर तक ढूँढती रही। छोटे भाई से कहा, "कुछ पता नहीं चल रहा न, तेत्सु?"
 
उस दिन मियामोतो अध्यक्ष हमारे साथ नहीं गए। केवल हम दोनों ही थे। अचानक एक अजीब चीज़ पर नज़र पड़ी। उसका माथा और आँखें, बिलकुल शिगे की तस्वीर जैसी थीं। मैंने कहा, "वो रहा शिगे, शिगे, शिगे"। और मैंने कलश में उसकी हड्डियाँ भर लीं। शिगे मरा पड़ा था और पूरी तरह जल चुका था। पेट के ठीक नीचे खाने का डिब्बा नज़र आ रहा था। छोटे भाई ने कहा, "दीदी, खाने का डिब्बा मिला"। उस खाने कि डिब्बे पर मेरी लिखावट में "मासाआकि ओरिमेन", बड़े भैया का नाम लिखा था। वो डिब्बा जिसमें मैंने खाना भर कर दिया था, पानी की बोतल और बस्ता, कुछ भी नहीं जला था। सब कुछ सही-सलामत था। पैसे भी नहीं जले थे। बची हुई सारी चीज़ें मैं अपने साथ ले आई और भगवान के सामने देवालय में रख दिया।
 
शायद सपने में देखा होगा, लेकिन "माँ, माँ" की चीख सुनाई दी, और मैं बहुत परेशान हो गई। ज़रूर सपना रहा होगा। हमेशा उससे कहती थी, "खड़े रहोगे तो बम का निशाना बन जाओगे इसलिए पेट के बल लेट जाना"। विस्फोट के वक़्त वो जहाँ ज़मीन पर लेट गया, वहाँ गोदाम थे। गोदाम ढह गए, और वो उनके नीचे दब गया। उसके हाथ में दर्द हो रहा था और वहाँ से निकल कर भाग भी नहीं पाया।
 
दूसरों ने बताया कि जो लोग लौट कर आए, वो भी दो दिन बाद मर गए। बच्चों ने बताया कि सब "माँ, माँ पुकार रहे थे"। पाठशाला से वापस आकर भी जब बच्चे "माँ" पुकारते हैं, तो उन्हें कोई अच्छी चीज़ चाहिए होती है। उसी तरह शायद माँ की याद आई होगी। बहुत मुश्किल रहा होगा। ऐसा नहीं होना चाहिए। आँखें बन्द करके लेटने पर भी यही ख़याल मन में चलते रहते थे और मैं सो नहीं पाती थी। डॉक्टर से मन को शान्त करने की दवा लेकर सोती थी।
 
युद्ध सचमुच दुखदायी है, एक त्रासदी है। युद्ध के बारे में गम्भीरता से सोचिए। युद्ध नहीं होने चाहिए। हमें न तो परमाणु हथियार बनाने चाहिए, और न ही रखने चाहिए। अभी जो शान्ति है उसे हमेशा कायम रखना होगा। बस यही कहना चाहती हूँ।
 
मैंने देखा कि हिरोशिमा शान्ति स्मृति संग्रहालय के अध्यक्ष और हिरोशिमा शान्ति संस्कृति केन्द्र के निदेशक हाल ही में सोवियत संघ गए थे। वहाँ के हालात के बारे में सुनकर बहुत दु:ख होता है। ऐसा अब और नहीं होना चाहिए। सब मिलजुल कर रहिए।
 
मेरी तो सिर्फ़ एक ही प्रार्थना है, "शान्ति बनी रहे, शान्ति बनी रहे"। कोई किसी को कष्ट न दे।
 
  
  

सर्वाधिकार सुरक्षित। इस वेबसाइट पर दिखाये गये तस्वीरों या लेखों का अनधिकृत रूप से पुनः प्रस्तुतीकरण वर्जित है।
HOMEに戻る Top of page
Copyright(c) Hiroshima National Peace Memorial Hall for the Atomic Bomb Victims
Copyright(c) Nagasaki National Peace Memorial Hall for the Atomic Bomb Victims
All rights reserved. Unauthorized reproduction of photographs or articles on this website is strictly prohibited.
初めての方へ個人情報保護方針
日本語 英語 ハングル語 中国語 その他の言語