त्सुबोइ जी, उस वक़्त 20 साल के थे। विस्फोट स्थल से 1.2 किलोमीटर दूर मिनामि-ताकेयामाचि में परमाणु बम के शिकार हुए । 6 अगस्त को मियुकि पुल पर आपात चिकित्सा केन्द्र बनाया गया और बहुत से लोगों को प्राथमिक उपचार देकर निनोशिमा द्वीप ले जाया गया । मियुकि पुल का दर्दनाक दृश्य अपनी आँखों से देखने वाले त्सुबोइ जी का कहना है कि उन्हें अहसास हुआ कि लोगों को युद्ध की ओर धकेलने वाली शिक्षा कितनी डरावनी है । इसी बात ने उन्हें युद्ध के बाद, एक शिक्षक के तौर पर शान्ति शिक्षा से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।
6 अगस्त की सुबह, मैं विश्वविद्यालय के उत्तरी द्वार के पास से गुज़र रहा था। वहीं रास्ते में परमाणु बम का शिकार हुआ। उस दिन बहुत गर्मी थी।
सुन्दर कहना कुछ अजीब लगेगा, फिर भी… उस वक़्त का तो पता नहीं, लेकिन मैगनेशियम की रौशनी के रंगों जैसे लाल, पीले और हरे, बहुत सुन्दर रंग थे। मुझ पर ऊपर से रौशनी की बौछार पड़ी।
अपनी तरफ़ से तो मैं झट से नीचे लेट गया था, लेकिन धमाका मुझे उड़ा ले गया था। फ़ुटपाथ पर से उड़ता हुआ मैं एक रिहाइशी इमारत के सामने जा गिरा। जब मुझे होश आया तो वह इमारत पूरी तरह ढह चुकी थी। मैं घने अन्धेरे में इधर-उधर भटकता रहा।
लगभग 10 मिनट बाद, पीठ में चुभता हुआ दर्द महसूस होने लगा, इसलिए मैंने अपनी कमीज़ उतार दी। तभी देखा कि मेरी कमीज़ अब भी जल रही थी। शायद मैं 10 मिनट तक जलती हुई कमीज़ पहने इधर-उधर दौड़ता रहा था। मैं इतना हैरान हो गया था कि पीठ का दर्द महसूस ही नहीं हो रहा था।
तभी, टूटे हुए मकान के नीचे फंसी एक बूढ़ी महिला की आवाज़ सुनाई दी, "बचाओ"। मैं 20 साल का नौजवान था। मुझे दूसरों की मदद करनी चाहिए, ऐसा सोचकर मैं उस इमारत के पास गया। आवाज़ तो सुनाई दे रही थी, लेकिन कोई नज़र नहीं आ रहा था। आवाज़ बार-बार सुनाई दी। शहतीर या दूसरी तरह-तरह की चीज़ें अकेले उठाना मुमकिन नहीं था, इसलिए मैं मदद माँगने के लिए आस-पास देखने लगा। लेकिन, मुझे जो लोग दिखाई दिए वो हाथ आगे बढ़ाए चल रहे थे । उनके चेहरे गले हुए थे । तब तक मैंने ऐसा बिलकुल नहीं सोचा कि मुझे भी कुछ हुआ होगा। सिर्फ़ इतना ही समझ आया कि मेरे आस-पास कहीं बम फटा था।
लोगों से मदद तो मांगी, लेकिन सब इतने भूतहा से लग रहे थे कि शायद उन्हें देखकर मेरे होश उड़ गए। मदद करना चाहता था, लेकिन अकेले कुछ भी करना मुमकिन नहीं था। बहुत दु:ख के साथ, मैं वहाँ से चला गया। वह आवाज़ आज भी भूला नहीं हूँ। जब भी ये किस्सा सुनाता हूँ, उस दिन वह आवाज़ सपने में ज़रूर आती है। वो आवाज़ आज भी मेरे दिमाग में छाई हुई है। आज भी लगता है कि मैंने बहुत बुरा किया।
चलते-चलते कोई नर्म सी चीज़ मेरे पैर के नीचे आ गई। देखा तो किसी का हाथ पड़ा था। लोगों के सिर या हाथ उड़-उड़ कर यहाँ-वहाँ गिर रहे थे। एक व्यक्ति थे, जो काफ़ी बूढ़े थे। उनके सीने में शहतीर गड़ा हुआ था। जब भी वे साँस लेते, उनके फेंफड़े अन्दर-बाहर होते दिखाई देते। ज़ाहिर है, वे ज़िन्दा नहीं बचे।
मैंने सोचा कि पाठशाला चला जाता हूँ। लेकिन चलते-चलते ताकत ख़त्म होने लगी, तो एक पेड़ की छाँव में बैठ गया। तब, लोगों की बातों से पता चला कि मियुकि पुल पर चिकित्सा केन्द्र बनाया गया है। मियुकि पुल वहाँ से दो-तीन सौ मीटर दूर था, इसलिए हिम्मत जुटा कर पुल की ओर चल दिया। पुल के पास पहुँचा तो देखा कि वहाँ हज़ारों लोगों की भीड़ लगी थी। चिकित्सा केन्द्र की छत तक नहीं थी। पाँच सड़कों वाले चौराहे की खुली जगह में भी लोग जमा थे। फिर, चिकित्सा दल तेल ले आया और बड़ी मेहनत से शरीर के जले हुए हिस्सों पर तेल लगाने लगा। वह तेल, रेलगाड़ी की मशीनों में इस्तेमाल होने वाला तेल था।
उसके बाद, कुछ ट्रकें आ गईं। ट्रक वाली घटना मैं सारी ज़िन्दगी नहीं भूलूँगा। ट्रकों से सैनिक उतरने लगे। फिर उन्होंने कहा, "सिर्फ़ जवान लड़के इस ट्रक में चढ़ सकते हैं, सिर्फ़ जवान लड़के ही" "औरतें, बच्चे या बूढ़े नहीं", वे सीने को चीरने वाली ऊँची आवाज़ में बोल रहे थे। ट्रक पर पैर रखने वाले सभी बुज़ुर्ग पुरुषों या महिलाओं को सैनिक उतार रहे थे। 40-50 साल के एक आदमी ने ट्रक के ऊपर से, प्राथमिक स्कूल की एक बच्ची को उसका हाथ पकड़ कर ट्रक में चढ़ाने की कोशिश की। लेकिन सैनिकों ने ये कहते हुए उसे खींच कर नीचे उतार दिया कि बच्चे ट्रक में नहीं चढ़ सकते।
शायद वो पिता और बेटी थे। ट्रक रवाना हो गई। शायद कुछ लोग कहें कि वह पिता ट्रक से क्यों नहीं उतरा। लेकिन, युद्ध का वक़्त था। बुज़दिल समझा जाना या सैनिकों के खिलाफ़ जाकर कुछ करना बहुत ही ख़तरनाक था। पुलिस पकड़ लेती और देशद्रोही घोषित कर दिया जाता। वह पिता भी इसी तरह की शिक्षा पाकर बड़े हुए थे इसलिए अपनी प्यारी बेटी के साथ रुकने के लिए ट्रक से उतर नहीं पाए। इंसान को इंसान न समझने वाले, मानव अधिकारों को अनदेखा कर देने वाले इस युद्ध के लिए मेरा गुस्सा तभी से पक्का हो गया।
मैं कई बार बेहोश हुआ। मेरे होश तब लौटे जब एक सहपाठी ने आवाज़ लगाई, "अरे, त्सुबोइ, क्या हुआ?" उसके प्रोत्साहन से मैं भी उस ट्रक पर चढ़ गया क्योंकि मैं भी जवान था। ट्रक हमें उजिना के नौसेना अड्डे ले गई। वहाँ लोगों की इतनी भीड़ थी कि कुछ करना सम्भव नहीं था। वहाँ मैं एक दोस्त से मिला। हज़ारों लोगों की भीड़ में, इस तरह मिलने की सम्भावना कहाँ होती है। वह दोस्त अब तोक्यो में रहता है। वह दोस्त मुझे अपनी पीठ पर उठा कर उजिना से भगाकर निनोशिमा द्वीप ले गया।
निनोशिमा द्वीप में चिकिस्ता करवाने के लिए ख़ुद चलकर जाना होता था। वे लोग टिंकचर लगाकर या दूसरे तरीक़ों से इलाज करते थे। ख़ुद चलकर जाना था, इसलिए मेरा इलाज नहीं हो सकता था। मेरे जैसे गम्भीर रूप से घायल लोग हिल-डुल नहीं पाते थे इसलिए घर लौटकर आने तक हमारा इलाज बिलकुल नहीं हो पाया। मक्खियाँ उड़-उड़ कर हमारे ज़ख़्मों पर बैठतीं, उनमें अण्डे देतीं और उससे हमारे शरीर पर गेरुई कीड़े पैदा होने लगते। मेरी भी त्वचा और माँस के बीच में गेरुई कीड़े पड़ गए। माँ चिमटी से उन्हें निकालती थीं, लेकिन कीड़े त्वचा से चिपके हुए थे इसलिए दर्द होता था। फिर भी, दर्द सहकर उन्हें निकलवाना ज़रूरी था, नहीं तो कीड़े सारे शरीर में फैल जाते थे और उस व्यक्ति की मौत हो जाती थी। ऐसा अनुभव मेरे साथ भी हुआ।
एक छात्र तब तक ऐसी आवाज़ें निकाल रहा था जैसे कि वह मौत की कगार पर हो। लेकिन अचानक वह उठा, दीवार की ओर दौड़ा और दीवार से टकरा कर मर गया। उसने ऐसा क्यों किया। दीवार से टकराने से पहले उसने कहा, "हमला -!" शायद वह कल्पना कर रहा होगा कि वह युद्ध में है। यही है सैन्यवादी शिक्षा का भयानक चेहरा। मरने से एकदम पहले भी लोगों को "हमला -!" या "मार डालो दुश्मनों को!" कहते हुए दौड़कर जाते और गिरते हुए देखा। इन घटनाओं ने मुझे एक बार फिर अहसास करवाया कि युद्ध और युद्ध की ओर धकेलने वाली शिक्षा बहुत भयानक होते हैं, और सही शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण होती है।
मेरे गाँव से सम्पर्क हुआ और मेरी माँ और पिता जी, नाव लेकर रिश्तेदारों के साथ निनोशिमा द्वीप आए। जानकारी केन्द्र में पूछताछ करने पर उन्हें बताया गया कि मैं वहाँ नहीं था। हज़ारों, लाखों परमाणु बम पीड़ितों में से मुझे ढूँढने का मुश्किल काम उन पर आ पड़ा। लेकिन, चेहरे इतने बिगड़ चुके थे कि लाख ढूँढने पर भी किसी का मिलना मुश्किल था। सांझ हुई, तो रिश्तेदार वापस चले गए। माँ और पिता जी रुक तो गए, लेकिन करते क्या। लोग एक के बाद एक मरते जा रहे थे। पहले निनोशिमा में उनके शव जलाए जा रहे थे। उस वक़्त लाशों को जलाने वाले लोगों और तेल की कमी थी, इसलिए बम हमले से बचने की जगहों या खेतों में लाशें रखी रहीं।
माँ और पिताजी एक एक लाश को देखते हुए मुझे ढूँढ रहे थे, लेकिन कामयाबी नहीं मिल रही थी। हार कर उन्होंने वापसी की तैयारी कर ली, और एक आख़िरी बार, हर कमरे में जा-जाकर, सारी शर्म और हिचक भूलकर मेरा नाम पुकारने लगे। उनकी आवाज़ सुनकर, उस एक क्षण के लिए मुझे होश आया। मैंने कहा, "यहाँ हूँ।" और हाथ उठाए-उठाए ही फिर से बेहोश हो गया। उन दोनों की कोशिशों से ही, बिलकुल सही वक़्त पर एक पल को मुझे होश आया, और उसी से मेरी जान बच सकी ।
अगले साल 10 जनवरी तक मैं बैठने लायक हुआ। लगभग मार्च में, फ़ुसुमा दरवाज़ा पकड़ कर खड़ा होने और थोड़ा बहुत चलने लायक हुआ। जब घर लौटा था, तब सिर की त्वचा छिली हुई थी और पीठ से लेकर पैर तक पूरा शरीर जला हुआ था। कई बार परिवार के लोगों ने कहा, "ये नहीं बचेगा।" डॉक्टरों ने भी कहा, "बचने की कोई उम्मीद नहीं है।""बस आज की रात और है।" कई बार अस्पताल में भर्ती हुआ। अस्पताल में भर्ती भी अक्सर यूँ होता था कि एक दिन भला-चंगा रोज़ की तरह काम-काज करता तो अगले ही दिन अचानक गिर जाता। ऐसा क्यों होता था, पता नहीं।
जैसे, एक दिन काम से घर आकर, खाना खाकर, टेलीविजन देखकर, सोने के लिए बिस्तर पर गया और बिस्तर पर अख़बार पढ़ने लगा। तभी अचानक गले में अजीब सा लगने लगा। फिर ख़ून निकलने लगा और ऐम्बुलेंस बुलाकर सरकारी अस्पताल जाना पड़ा। वहाँ मुझसे यही कहा गया कि ख़ून क्यों निकल रहा है, ये पता नहीं। इतना ख़ून निकला कि ऐम्बुलेंस में जो सफ़ेद कपड़ा मिला था वो एकदम लाल हो गया था। ऐसा नहीं था कि मँसूड़ों से थोड़ा सा ख़ून आ रहा हो।
सिर्फ़ शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक रुप से भी उथल-पुथल से भरी हुई थी, युद्ध के बाद की ज़िन्दगी। बार-बार ये अहसास होता है कि विकिरण का डर, केवल शारीरक तौर पर ही नहीं, मानसिक तौर पर भी परेशान कर देता है। आप सब की कृपा से अब तक जी रहा हूँ।
देखिए, युद्ध किस तरह इंसान से उसका जीवन छीन लेता है। ज़िन्दगी और मौत तो है ही, लेकिन अगर कोई बच भी जाए तो युद्ध इंसान के जीवन को कुचल कर रख देता है। इसलिए मुझे लगता है कि शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है। मैं दूसरों की मदद करना चाहता हूँ, इसलिए शिक्षक बना। सिर्फ़ आभार या एहसान लौटाने की भावना होती तो शायद शिक्षक न बनता। मैं दिल से मानता हूँ कि युद्ध की ओर धकेलने वाली शिक्षा की ताकत ही ऐसे युद्ध को जन्म देती है। इसी वजह से मैंने शान्ति शिक्षक की राह चुनी। शिक्षक बनकर, विद्यार्थियो या उनके अभिभावकों से मिलने के अवसरों का इस्तेमाल करके, भले छोटा सा ही सही, लेकिन शान्ति की दिशा में अपना योगदान कर रहा हूँ।
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