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Select a language /हिन्दी(Hindi・ヒンディー語) / Memoirs (अणु-बम हमले से जीवित बचे लोगों के संस्मरण पढ़ें)

उस गर्मी की अविस्मरणीय घटना 
शिमोताके चियोको (SHIMOTAKE Chiyoko ) 
लिंग महिला  बमबारी के समय उम्र 24 
लिखने का वर्ष 2009 
बमबारी के समय स्थिति हिरोशिमा 
Hall site अणु-बमबारी पीड़ितों के लिये हिरोशिमा नेशनल पीस मेमोरियल हॉल 

●युद्ध के दौरान जीवन
मेरा जन्म सन 1921 में हिरोशिमा प्रशासनिक प्रांत की यामागाता काउंटी में टोनोगा गांव (जिसका नाम बदलकर बाद में काके-चो कर दिया गया था और जिसका वर्तमान नाम अकिओता-चो है) में हुआ।

सन् 1940 या 1941 के आस-पास मैंने अपने माता-पिता का घर छोड़ दिया और सुत्सुगा गांव (वर्तमान अकिओता-चो) में रहने वाली शिष्टाचार की एक शिक्षिका, जो कि अपने कड़े निर्देशों के लिए प्रसिद्ध थीं, के घर में रहकर चाय समारोह, पुष्प-सज्जा और शिष्टाचार की शिक्षा प्राप्त की। यह मेरे भावी जीवन के लिए अत्यंत सहायक सिद्ध हुआ। कुछ वर्षों बाद जब मेरी शिक्षिका की मृत्यु हो गई, तो सुत्सुगा गांव के शिक्षा अधीक्षक ने मुझसे कहा कि मैं शिक्षिका का पद स्वीकार करूं और छात्रों को पढ़ाऊं। गांव के लोगों द्वारा दिए जाने वाले अध्यापन शुल्क से मेरी आय होने लगी।

इस कार्य के माध्यम से मैं टोनोगा गांव के प्रधान के भतीजे हिसाशी कावामोटो के संपर्क में आई और मई 1944 में मैंने उनसे विवाह कर लिया। हमारा विवाह तो मानो पूर्व-निश्चित ही था क्योंकि मेरे पिता टोनोगा गांव के कार्यालय में कार्यरत थे और मेरे भावी पति से उनका व्यक्तिगत परिचय था। विवाह के बाद हम मेरे पति के माता-पिता (मेरे ससुर कमेसाबुरो और सास सेकियो) के साथ हिजियामा-होनमाची, हिरोशिमा सिटी में सुनामी पुल के पास रहने लगे। हालांकि मेरे पति घड़ियों का व्यापार किया करते थे, लेकिन इसे बंद करने के दबाव के कारण उन्हें यह व्यापार बंद करना पड़ा क्योंकि एक ही तरह का व्यापार करने वाली कई दुकानों की एक ही स्थान पर कोई आवश्यकता नहीं थी। युद्ध की कठिन परिस्थिति में यह आदेश जारी हुआ कि एक ही घर में दो पूर्णकालिक गृहिणियों की आवश्यकता नहीं है और महिलाओं को भी काम करने के लिए बाहर जाना चाहिए। इसलिए अपनी शादी के एक माह बाद मैं कासुमी-चो में सैन्य शस्त्रागार के लिए काम करने लगी, जहां मेरे ससुर जी भी काम किया करते थे।

●अणु-बमबारी से पूर्व
टोनोगा गांव ही मेरे सास-ससुर का भी गृहनगर था। मेरी सास 3 अगस्त से टोनोगा गांव जाने की योजना बना रही थी, लेकिन उस दिन सुबह अचानक उनका विचार बदल गया और उन्होंने मुझसे कहा, "तुम पहले चली जाओ। मैं वहां ओबोन के दौरान जाउंगी और लगभग 10 दिनों तक रूकूंगी"। इसलिए मैं 3 अगस्त से 5 अगस्त तक अपने मायके में रहने के लिए टोनोगा गांव चली गई। जब मैं सुनामी पुल को पार कर रही थी, तो मेरी सास भागते हुए मेरे पीछे आईं और एक छाता, जो कि अच्छी स्थिति में था, देते हुए मुझसे कहा" इसे अपने माता-पिता के घर पर ही छोड़ देना क्योंकि यदि हम इसे हिरोशिमा में ही रखेंगे, तो हम नहीं कह सकते कि हवाई-हमलों के कारण इसका क्या होगा"। अपनी बात जारी रखते हुए उन्होंने कहा "अपने माता-पिता को मेरा नमस्कार कहना और 5 तारीख तक अवश्य लौट आना"। वे मेरी सास मां के अंतिम शब्द थे। जब मैं उनकी बात सुन रही थी, तो मुझे इस बात का जरा भी अंदाज़ा नहीं था कि ये मुझसे कहे गए उनके अंतिम शब्द थे। अपने माता-पिता के घर में रहने पर मैं हमेशा ही यह चाहती थी कि मैं वहां यथासंभव अधिक से अधिक समय तक रह सकूं और आराम कर सकूं, इसलिए मैंने 5 तारीख की रात को छूटने वाली आखिरी बस से घर लौटने का फैसला किया। लेकिन जब मैंने घर लौटने की कोशिश की, तो मुझे बस में चढ़ने नहीं दिया गया और मुझे वापस अपने माता-पिता के घर जाना पड़ा। जब मेरे पिता को इस बात का पता चला कि मैं वापस अपने घर नहीं गई हूं, तो उन्होंने मुझे डांटते हुए कहा, "वह व्यक्ति विफल है, जो अपना वादा नहीं निभा सकता। मैं श्री व श्रीमति कावामोटो से जितनी भी क्षमा याचना करूं, वह कम होगी "!उन्होंने कवामोटो परिवार को एक तार भेजकर यह संदेश भी दिया कि "मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि चियोको किसी भी स्थिति में कल घर पहुंच जाए"।

●6 अगस्त से 9 अगस्त तक
अगले दिन (6 अगस्त को) मैं इस तथ्य के बावजूद भी अपने माता-पिता के घर में ही रुकी रही कि मैंने जिस दिन लौटने का वादा किया था, वह दिन पहले ही बीत चुका था और मुझे सुबह ही निकल जाना चाहिए था। हालांकि, यदि मैं उस दिन सुबह जल्दी निकल गई होती, तो मैं विस्फोट के केंद्र से बहुत ही कम दूरी पर अणु-बमबारी का शिकार हो गई होती। सुबह 8:15 का समय हुआ था। किसी वस्तु के चमकने के अहसास के बाद, एक तेज आवाज सुनाई दी, मानो भूकंप आ गया हो। कुछ समय बाद, कटे-फटे और झुलसे हुए कागज के अनगिनत टुकड़े हवा में उड़ते हुए हमारी ओर आ गए, जिन पर जापानी भाषा में "हिरोशिमा सिटी" लिखा हुआ था। यह देखकर, मैंने सोचा कि शायद हिरोशिमा में कुछ हुआ है। कुछ देर बाद हमें बताया गया कि शायद हिरोशिमा में कोई बहुत गंभीर घटना हुई है। मैंने हिरोशिमा लौटने की कोशिश की, लेकिन लोगों ने कहा कि शहर की ओर जाने वाला रास्ता इस स्थिति में नहीं है कि महिलाएं और बच्चे पैदल चलकर उस रास्ते से जा सकें। इसलिए स्थिति की जांच करने के लिए पहले मेरे पिता पैदल हिरोशिमा सिटी गए। उनके अनुसार, पहले वे हिजीयामा होनमाची के एक घर में गए, जहां हम पहले रहा करते थे और उन्होंने देखा कि सब कुछ जलकर राख हो चुका है। राख के ढेर में, उन्होंने एक संदेश-पट्ट दिखाई दिया, जिस पर लिखा था, "हम आर्सेनल में एक शयनगृह में जा रहे हैं"। वे वहां गए और मेरे पति व सास-ससुर से मिले। मेरी सासू-मां बुरी तरह जल चुकी थीं और मृत्यु-शैय्या पर थीं। मेरे पति और सास-ससुर की स्थिति की जानकारी लेने के बाद, मेरे पिता हिगाशी-हाकुशिमा-चो में मेरे चाचाजी को देखने गए। मेरे चाचाजी का घर पूरी तरह ढह चुका था और वे कोइ के आस-पास किसी स्थान पर चले गए थे। विद्यार्थियों की लामबंदी के अंतर्गत एक इमारत को ढहाते समय उनकी मौत हो चुकी थी।

पैदल घूमकर उस क्षेत्र की जांच करने के बाद, मेरे पिता टोनोगा गांव लौट आए। यह जानने पर कि मेरे पति और मेरा परिवार आर्सेनल के एक शयनगृह में था, मैंने 8 अगस्त की सुबह बस के बजाय रेलगाड़ी (काबे लाइन) से हिरोशिमा में प्रवेश किया। उस रास्ते पर मुझे काबे स्टेशन के सामने एक प्लाज़ा में पड़े अनेक घायल व्यक्ति दिखाई दिए, जिनकी सांसें बहुत धीरे-धीरे चल रही थी। उनमें से हर एक के बिस्तर के पास सिर्फ एक कैन रखा था। यहां तक कि जब अपने परिजनों को ढूंढने आए लोग घायलों के चेहरे को देखकर अपने प्रियजनों का नाम पुकारते थे, तो उनमें से किसी में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह उत्तर दे सके। इतनी बड़ी संख्या में घायलों को देखकर मैं अपने परिवार के बारे में बहुत अधिक चिंतित हो गई थी।

मेरी रेलगाड़ी मिताकी स्टेशन के आस-पास के क्षेत्र में रूक गई और यात्रियों से उतर जाने को कहा गया। वहां से मैं आर्सेनल शयनगृह की ओर बढ़ी और मेरे पास आलूबुखारे का अचार व चावल जैसी चीज़ें थीं, जो कि मेरे माता-पिता ने मुझे दी थीं। हालांकि, मैं ये नहीं जानती थी कि दूर तक जले हुए मैदान पर मुझे किस दिशा में बढ़ना चाहिए। मैं पहले जिन संकेत-स्थलों के मिलने की उम्मीद कर रही थी, उन सभी के बिना ही मुझे आगे बढ़ना पड़ा। तब मुझे जलती हुई आग की लपटें दिखाई दीं। यह सोचकर कि उसके आस-पास शायद मुझे कोई मिल जाए, जिससे मैं अपना रास्ता पूछ सकूं, मैं उस आग के पास गई और मैंने पाया कि वह आग लाशों को जलाने के लिए लगाई गई थी। चाहे पुल पर हो, किसी सड़क के किनारे हो या चावल के खेत में हो, लगभग हर कहीं लाशें जलाई जा रहीं थीं। जलती हुई लाशों को देखने के बाद भी मुझे न तो कुछ महसूस हुआ और न ही मैंने उनकी गंध के बारे में कुछ सोचा। अवश्य ही मेरी भावनाएं सुन्न हो चुकी होंगी।

आखिरकार 9 तारीख को देर रात 3:00 बजे, मैं आर्सेनल के शयनगृह में पहुंच गई। हालांकि मेरी सास की मौत हो चुकी थी, लेकिन उनका शव अभी भी वहीं पड़ा था क्योंकि उनकी मृत्यु हुए अभी कुछ ही घंटे बीते थे। चूंकि अणु-बमबारी के समय मेरी सास खेत में कटाई कर रही थीं, अतः उनका पूरा शरीर जल गया था, उनकी ठोड़ी और स्तन पूरी तरह जल चुके थे और वे बहुत ही भयानक स्थिति में थी। मेरे ससुर जी ने बताया कि जब मेरी सास के कराहने की आवाज़ें सुनाई देना बंद हो गईं, तो उन्होंने कुछ मोमबत्तियां जलाईं, जिनके प्रकाश में देखने पर उन्हें पता चला कि उनकी मौत हो चुकी है। अगले दिन, मेरे ससुरजी ने लकड़ी का एक डिब्बा बनाया, मेरी सास को उसमें रखा और डिब्बे को आलू के खेत में जला दिया।

●मेरे पति की मृत्यु
चूंकि मेरे पति घर पर ही थे, इसलिए वे आग से सुरक्षित बच गए थे और उनके शरीर पर चोट के कोई निशान भी नहीं थे। उन्होंने मुझे बताया कि खेत में काम कर रही मेरी सास की चीखें सुनकर वे उन्हें बचाने के लिए बाहर गए थे।

15 अगस्त को मैं सुबह 5:00 बजे जाग गई। हालांकि मेरे पति ने मुझसे कहा कि मुझे इतनी सुबह उठने की कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन फिर भी मैंने अपनी सास की आत्मा को समर्पित करने के लिए मालपुआ बनाया क्योंकि यह उनकी मृत्यु के बाद सातवां दिन था-वह दिन, जब हमें उनकी याद में एक पूजा करनी थी। मैंने हम तीनों के लिए चावल की लपसी भी बनाई। जब मैंने अपने पति, जो कि तीन-ततामी-चटाइयों वाले एक कमरे में मेरे ससुरजी के साथ जमीन पर लेटे हुए थे, को चावल की लपसी खिलाने की कोशिश की, तो उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इससे पहले कि मेरे ससुरजी को इस बात का अहसास होता, मेरे पति की मौत हो चुकी थी। चूंकि मेरे पति के शरीर पर अब मक्खियां भिनभिनाने लगीं थीं, इसलिए मैंने स्थानीय शासकीय कार्यालय में यह सूचना दी कि मेरे पति की मृत्यु 14 तारीख को हुई थी (जबकि वास्तव में उनका निधन 15 तारीख को हुआ था), ताकि यथाशीघ्र उनका अंतिम संस्कार किया जा सके, और उनकी मृत्यु के दिन ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। मेरे ससुर जी ने एक बार फिर लकड़ी का एक बक्सा बनाया, जो कि इस बार मेरे पति के लिए था। मेरे पति को हमने उस बक्से में रखा और उसे जला दिया। चूंकि मेरी सास के अंतिम संस्कार के लिए आग जलाने का कार्य शायद मेरे ससुरजी के लिए इतना कठिन था कि वे उसे सह नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने मुझसे मेरे पति के अंतिम संस्कार का दायित्व निभाने को कहा। मैं नहीं चाहती थी कि जो व्यक्ति उस दिन सुबह तक सांसें ले रहा था, उसके शव को जलाने का कार्य मुझे करना पड़े, लेकिन यह मेरी ज़िम्मेदारी थी इसलिए मैंने अग्नि प्रज्वलित की। लेकिन एक बार शव जलना शुरू हो जाने पर मैं वहां न रुक सकी। मैंने वहां से निकल जाने का प्रयास किया, लेकिन तब मुझे अहसास हुआ कि मेरे कदम लड़खड़ा रहे थे और मैं खड़ी रह पाने में असमर्थ थी। इसलिए मेरे पास रेंगते हुए घर जाने के अलावा कोई चारा नहीं था। यहां-वहां जल रही लाशों के कारण मेरी हथेलियां, घुटने और पैर जल गए क्योंकि धरती अभी भी गर्म थी।

अगले दिन मैं अपने पति की अस्थियां लेने गईं और मुझे आश्वर्य हुआ कि आसमान में उड़ रहे शत्रु के हवाई-जहाज़ों के बावजूद भी चेतावनी का संकेत क्यों नहीं दिया गया था। उस समय तक मुझे यह पता नहीं चला था कि युद्ध पहले ही खत्म हो चुका था।

●आत्महत्या करने के लिए साइनाइड
शस्त्रागार में सभी महिलाओं को साइनाइड दिया गया था। हमसे कहा गया था कि यदि अमरीकी सैनिक हमारे साथ बलात्कार करें, जो कि जापानियों के लिए शर्म की बात थी, तो हम उसे निगल लें। जब मेरे पति की मौत हुई, तो मैंने साइनाइड लेने की कोशिश की क्योंकि मैं ऐसा महसूस कर रही थी कि अब मेरे जीवन का कोई अर्थ नहीं है। जब मेरे ससुर जी मेरे पति की मौत की सूचना देने के लिए स्थानीय शासकीय कार्यालय गए थे, तो मैंने साइनाइड लेने के लिए पानी भी पी लिया था। लेकिन उसी क्षण मेरे मन में विचार आया कि घर लौटने पर जब मेरे ससुर जी को पता चलेगा कि मेरी भी मौत हो चुकी है, तो वे क्या सोचेंगे। इसलिए मैंने यह सोचकर साइनाइड न लेने का निर्णय किया कि मेरे पास मर जाने का विकल्प नहीं था और मेरा कर्तव्य था कि मैं अपने ससुर जी का ध्यान रखूं। मैंने अपने लंबे बाल कटवा लिए और उन्हें अपने पति की चिता में जलाते समय अपने पति की आत्मा से कहा, "मुझे माफ कर देना मेरे प्रियतम। मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती। यह तुम्हारे प्रति मेरी भावनाएं हैं"। यदि मेरे ससुर जी न होते, तो मैंने साइनाइड खा लिया होता।

टोनोगा गांव लौटने के बाद भी मैंने साइनाइड को संभालकर रखा था। मेरे छोटे भाई को इस बात का पता चल गया और उसने उसे यह कहते हुए उसे जला दिया कि यदि वह मेरे पास रहा, तो मैं आत्महत्या कर सकती हूं। मेरे पास उस जलते हुए रसायन की गंध का वर्णन करने के लिए कोई शब्द नहीं थे।

●मेरे ससुर जी की मृत्यु
अणु-बमबारी के समय मेरे ससुर जी शस्त्रागार में थे और उनकी पीठ बुरी तरह जल गई थी। इस कारण उन्हें सोते समय हमेशा पेट के बल सोना पड़ता था। मेरे पति की मृत्यु के बाद, मैं अपने ससुर जी के साथ टोनोगा गांव जाने की योजना बना रही थी। लेकिन 25 अगस्त को उनकी मृत्यु हो गई। मेरी उम्र केवल 24 साल थी और अपने पति और सास-ससुर की मृत्यु के कारण मैं पूरी तरह अकेली पड़ गई थी। मुझे लगा कि यदि अब मेरी मौत भी हो जाए, तो मुझे कोई दुःख नहीं होगा। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकी क्योंकि मेरे मन में यह कर्तव्य-बोध था कि मुझे उन तीनों की राख मेरे सास-ससुर के गृहनगर ले जाकर वहां उनके परिवार को सौंपनी है।

●टोनोगा गांव में वापसी
अंततः अपने पति और सास-ससुर की राख अपने साथ लेकर मैं 6 सितंबर को टोनोगा गांव पहुंची। मेरे पति के संबंधियों ने उनके घर में मेरे परिवार के अंतिम संस्कार का आयोजन किया। चूंकि मैं बहुत दुबली-पतली थी और उन दिनों अस्वस्थ महसूस कर रही थी, इसलिए मेरे माता-पिता और भाई मेरी देखभाल करने के लिए वहां थे। उनके कारण ही मैं आज भी जीवित हूं। माता-पिता और भाइयों का होना सचमुच ही सौभाग्य की बात है। भोजन के प्रति उनकी रूचि इतनी अधिक संक्रामक थी कि उनके साथ मैं भी भोजन कर लिया करती थी। एक समय ऐसा भी था, जब हमारे पास हमेशा ही भोजन की कमी रहा करती थी, और आज सब कुछ है, लेकिन कुछ खाने की इच्छा ही नहीं रही।

टोनोगा गांव लौटने के बाद, मैं अपने पिता के साथ कई बार हिरोशिमा गई। एक दिन, एक विदेशी, जो कि युद्ध-बंदी रह चुका था, ने शहर में हमारा पीछा किया। हम उस क्षेत्र में घूमते-घूमते पहले ही पूरी तरह थक चुके थे, यहां तक कि हमने वह क्षेत्र भी पार किया, जहां माकुराज़ाकी तूफान के बाद कोई सड़कें नहीं बची थीं। हालांकि, तेज़ी से दौड़ते हुए हम उससे बचकर भाग निकलने में सफल रहे, लेकिन उस घटना के दौरान मैंने जो डर महसूस किया, उसे मैं आज तक नहीं भूल सकी हूं।

●दूसरा विवाह
सन 1957 में मैंने एक ऐसे व्यक्ति के साथ पुनः विवाह किया, जिसके तीन बच्चे थे और सबसे छोटे बच्चे की उम्र दो वर्ष थी। पहले पहल मैं इस विवाह-प्रस्ताव को अस्वीकार कर देने का इरादा रखती थी क्योंकि मुझे बच्चों के पालन-पोषण का कोई अनुभव नहीं था। हालांकि, एक बार जब मैं उसके बच्चों से मिली, तो वे मुझे इतने प्यारे लगे कि मैंने अपना विचार बदल लिया और यह सोचकर उस व्यक्ति के साथ शादी करने का निर्णय लिया कि मैं उसके बच्चों का पालन करते हुए प्रसन्नता महसूस कर सकूंगी क्योंकि अब मेरी अपनी कोई संतान होने की आशा न के बराबर थी।

●स्वास्थ्य की स्थिति
ऐसे अनेक अवसर आए हैं जब मैं अपनी शारीरिक स्थिति को लेकर चिंतित रही। आजकल मुझे सभी प्रकार के चिकित्सकों से जांच करवानी पड़ती है। जब मैं अपना दांत निकलवाने के लिए किसी स्थानीय दंत-चिकित्सक के पास जाती हूं, तो वह मुझसे अपने साथ किसी चिकित्सक को लाने को कहता है क्योंकि सामान्यतः मेरे खून का बहाव रुकता नहीं है।

सन 2001 में लगभग 7 वर्षों पूर्व, गर्भाशय के कैंसर के उपचार के लिए मेरा ऑपरेशन किया गया। चूंकि मेरा कैंसर मेरी आंतों तक फैल चुका था, इसलिए इतना बड़ा ऑपरेशन था कि मेरी आंतों का 50 सेमी भाग भी हटा देना पड़ा। गर्भाशय का कैंसर एक ऐसी बीमारी है, जिसका उपचार कर पाना कठिन होता है और यह मेरी आंतों तक फैल चुका था। इसलिए मुझे आश्चर्य होता है कि मैं जीवित कैसे बची।

जब मैं गर्भाशय के कैंसर से पीड़ित थी, तो मुझे भोजन का स्वाद कड़वा महसूस होता था। पिछले दिनों मुझे फिर वैसा ही महसूस होने लगा था, इसलिए मैं परीक्षण करवाने के लिए एक अस्पताल में गई। अस्पताल में यह पता चला कि मेरी आंतों में रूकावट उत्पन्न हो गई है और मुझे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।

●अणु-बम विकिरण के साथ संपर्क
हालांकि, प्रत्यक्ष रूप से अणु-बम विकिरण के संपर्क में न आने के कारण मेरे शरीर का कोई अंग नहीं जला था, लेकिन फिर भी मक्खियों ने मेरे हाथों, पैरों और पीठ सहित पूरे शरीर पर अंडे देना शुरू कर दिया और अनगिनत कीड़े रेंगते हुए मेरी त्वचा से बाहर आने लगे। मुझे इतना तेज दर्द होता था, मानो किसी घुड़मक्खी ने मुझे काट लिया हो। उन कीड़ों द्वारा मेरी पीठ पर छोड़े गए निशान आज भी मौजूद हैं, इसलिए मैं गर्म पानी के झरनों सहित किसी भी सार्वजनिक स्नानागार में जाना पसंद नहीं करती।

अस्पताल के चिकित्सक जब मेरी पीठ को देखते हैं, तो मुझसे पूछते हैं कि मुझे क्या हुआ था। मैं उन्हें उत्तर देती हूं कि यह अणु-बमबारी के कारण हुआ है। कुछ चिकित्सक मुझसे यह भी पूछते हैं कि क्या अणु-बमबारी के समय मेरी पीठ खुली थी, लेकिन मैं उन्हें बताती हूं कि ऐसा नहीं था।

मेरा मानना है कि युद्ध नहीं होना चाहिए। शांति बहुत महत्त्वपूर्ण है। यहां तक कि जब आपके घर में भी कोई समस्या हो, तो आप खुश नहीं रह सकते। अतः हमें खुद पर नियंत्रण रखना चाहिए, ताकि हमारे कारण कोई समस्याएं उत्पन्न न हों।

 
 

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