●अणु-बमबारी से पहले के हालात
उन दिनों हम योकोगावा के पुलसे 100 मीटर की दूरी पर पूर्व में योकोगावा की गली नं. 1 में नदी के किनारे रहते थे। उस समय हमारे परिवार में चार सदस्य थे: मेरे पति (कियोशी), मैं, हमारी 3 साल की सबसे बड़ी बेटी काज़ुको और 6 महीने की सबसे छोटी बेटी कियोमी।
अणु बमबारी से पहले जब भी मैं रेड अलर्ट का सायरन सुनती थी तो अपने दोनो बच्चों को लेकर बंकर में छुप जाया करती थी। ऐसा कई दिनों तक होता रहा और आज भी उसकी यादें मेरे जहन में ताज़ा हैं।
●अणु-बमबारी से हुई क्षति
6 अगस्त की सुबह, मेरे पति ने काम से छुट्टी ली थी और वे घर पर थे क्योंकि उन्हें सेना में भर्ती होने संबंधी आदेशपत्र मिला था। रेड अलर्ट रद्द होने के बाद मैं और मेरे बच्चे ऊपर लुका-छिपी खेल रहे थे।
अचानक एक जलता हुआ गोला खिड़की में से हमारे घर में आकर गिरा और मैं और मेरे बच्चे इस तरह नीचे गिरने लगे, मानो हम किसी गहरी खाई में गिर रहे हों।
मेरी बड़ी बेटी मेरे पैरों के नीचे थी और चिल्ला रही थी "मम्मी, मैं यहां हूं, मम्मी, मैं यहां हूं"। मैंने उसे कहा कि "मैं तुम्हे वहां से निकालूंगी मेरी बच्ची, थोड़ा रुको"। लेकिन मैं अपनी गर्दन तक हिला नहीं पा रही थी क्योंकि मेरा पूरा शरीर दीवारों और घर के दूसरे सामान के बीच फंसा हुआ था।
मैंने अपने पति की आवाज सुनी, जो मेरा नाम पुकार रहे थे "माकीए, तुम कहां हो? माकीए....," और ऐसा लग रहा था कि वे हमें ढूंढते हुए यहां-वहां घूम रहे हैं। कुछ देर बाद मुझे गर्मी का अहसास होना शुरू हुआ। ऊपर मेरे पति लाचार होकर चिल्ला रहे थे, "आग की लपटें मेरे बहुत पास आ गई हैं, लेकिन अभी तक मुझे पता नहीं चल रहा है कि तुम कहां हो। यह जान लो कि हमें बचने की आशा छोड़नी होगी और उसी तरह मुझे तुम्हें भी खो देना पड़ेगा"।
"मैं यहां हूं, मैं यहां हूं"। मेरे बार बार पुकारने के बावजूद मेरे पति को पता नहीं लग पा रहा था कि मैं कहां हूं। जब मेरे पति कह रहे थे कि हमें बचने की आशा छोड़नी होगी, तब मैं अपनी छोटी बेटी के साथ मलबे में दबी हुई थी और मैंने उसे पागलों की तरह कसकर पकड़ रखा था। चूंकि अनजाने में मैंने उसकी नाक और मुंह को बंद कर रखा था, इसलिए वो सांस नहीं ले पा रही थी और चिल्ला रही थी। उसकी चीख सुनकर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ और मैं चिल्लाई "मेरी बच्ची मर रही है"! मेरे पति ने शायद मेरी आवाज सुनी और वापस आए। "तुम कहां हो, तुम कहां हो" चिल्लाते हुए वे हमें फिर से ढूंढने लगे। उन्होंने मलबा हटाकर पहले मुझे बाहर निकाला और फिर हमारी बेटी को। सिर में चोट के कारण चक्कर आने की वजह से मैं खड़ी नहीं हो पा रही थी। लेकिन धधकती हुई आग पास आती जा रही थी।
आग से निकलने के कुछ देर बाद मुझे ध्यान आया कि हमारी बड़ी बेटी हमारे साथ नहीं थी। मैंने अपने पति से पूछा कि वो कहां है। वे बोले, "कोशिश करना बेकार है। वो निकल नहीं पाएगी"।
"मुझे माफ कर दो। मुझे माफ कर दो। काजुको, मेरी बच्ची, कृपया हमें माफ कर दो"। मैं चली जा रही थी और अंदर ही अंदर अपनी बेटी से माफी मांग रही थी।
मेरे पति ने हमारी छोटी बेटी को एक हाथ से पकड़ रखा था और दूसरे हाथ से मुझे पकड़ कर खींच रहे थे, ताकि हम उस आपदा से जल्दी बाहर निकल सकें। बीच-बीच में वो मुझे हौसला देते जा रहे थे "हिम्मत रखो, खुद को संभालो और चलती रहो। तुम कर सकती हो"। मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था, मैं मुश्किल से उनके साथ चल पा रही थी। हर दिशा से आ रही आग की लपटों ने हमारे घर को जलाकर राख कर दिया था।
अपने दोनों हाथों में मुझे और हमारी बेटी को पकड़े हुए मेरे पति को चलते हुए विश्राम करने के लिए बार-बार रूकना पड़ रहा था। उस आपदा से निकलते हुए रास्ते में एक महिला, जिसके बाल बिखरे हुए थे, मदद के लिए चिल्लाती हुई मेरे पति के पैरों में आकर गिर पड़ी और बोली "कृपया मेरी मदद कीजिए। मेरी बेटी एक खंभे के नीचे दब गई है। उसे निकालने में मेरी मदद कीजिए"। लेकिन मेरे पति ने उसकी विनती को अस्वीकार करते हुए कहा "काश मैं आपकी मदद कर पाता, लेकिन मेरी पत्नी और बच्ची की हालत बहुत नाजुक है, कृपया मुझे माफ करें"। इसके बाद वह तेज़ी से भाग गई। थोड़ा रुकते और थोड़ा चलते हुए हम अंतत: शाम को मेरे पति के एक परिचित के यहां शिंजो पहुंचे।
●शिंजो में एक परिचित के घर
शिंजो में एक परिचित के घर पर हम 3 दिन रहे। अणु-बमबारी के सदमे की वजह से मैं अपनी बच्ची को दूध नहीं पिला पा रही थी। चूंकि पैर में हुए जख्मों की वजह से मुझे लेटे रहना पड़ता था, इसलिए मेरे पति बाहर से दूध लेकर आते थे।
मैं कुछ नहीं कर सकती थी लेकिन फिर भी लगता था कि हमारी बड़ी बेटी, जो हमारे घर के मलबे में दब गई थी, शायद सुरक्षित हो। मैं अपने आंसू नहीं रोक पाई। इस बात को सोचते हुए मुझे खुद पर गुस्सा आया कि मैं, मदद के लिए चिल्ला रही अपनी बड़ी बेटी को पीछे छोड़कर बचकर निकल आई।
शिंजो में परिचित के घर मैंने कई लोगों को देखा, जिनके शरीर पर जलने के गंभीर घाव थे। मैं उन लोगों को देख नहीं पाती थी। उन्हें देखना न पड़े, इसलिए मैं अपनी आंखें बंद कर लेती थी।
●यामागुची में अपने माता-पिता के घर
अणु-बमबारी के तीन दिन बाद रेल सेवाएं बहाल हुईं। तब मेरे पति, छोटी बेटी और मैं योकोगावा स्टेशन से कोगुशी (योमागुची प्रांत), जहां मेरे माता-पिता का घर था, जाने वाली एक खचाखच भरी हुई ट्रेन में बैठे । हम कोगुशी में माता-पिता के घर पैदल पहुंचे। रास्ते में लोग हमारे दयनीय रूप को देखकर एक दूसरे से पूछ रहे थे, "इन्हें क्या हुआ है और यह सब क्या हो रहा है?" वह बहुत छोटा शहर था और वहां सभी हमें जानते थे। मैं मौन थी, रोते हुए वहां से गुजरी और अंतत: माता-पिता के घर पहुंची।
उस रात के बाद हर रात मैं बहुत मुश्किल से सो पाती थी। मेरे अंदर यह आत्मग्लानि थी कि अपनी बड़ी बेटी को पीछे छोड़कर मैं बच निकली थी। मुझे इस परेशानी में देखकर मेरी बड़ी बहन और मेरी मां यह सोचकर मेरे पास ही सोने लगे कि कहीं मैं आत्महत्या न कर लूं। हालांकि मैं हर रोज आधी रात को चुपके से बिस्तर से उठकर बाहर जाकर रोती रहती थी। यह कहकर कि "मुझे माफ कर दो, इस स्वार्थी मां को माफ कर दो"। यामागुची में रहने के दौरान मेरे पति मेरी बड़ी बेटी की अस्थियों की तलाश में वापस हिरोशिमा गए।
मुझे अभी भी दूध नहीं आ रहा था इसलिए मेरी मां मेरी छोटी बेटी के लिए दूध लाने के लिए अभी-अभी मां बनी अन्य औरतों के यहां जाया करती थीं। मेरी मां ने मुझसे कहा कि "तुम्हारे पैर अभी ठीक नहीं हैं और तुम्हारी एक बच्ची भी है। इसलिए घर जाने से पहले तुम पूरा आराम करो"। उसके बाद लगभग एक साल तक मैं अपने माता-पिता के यहां रही। आज भी मेरा एक पैर खराब है।
●हमारी छोटी बेटी की मौत
यामागुची में एक साल रहने के बाद मैं वापस हिरोशिमा आ गई। हम योकोगावा में अपने पुराने घर के पास ही किराए के मकान में रहने लगे।
मेरे पति ने मुझसे कहा कि एक दिन वो हमारी बेटी को सार्वजनिक स्नानागार में स्नान कराने ले गए थे जहां एक आदमी ने हमारी बेटी को देखकर मेरे पति को बताया कि उसकी पीठ पर थोड़ी सूजन दिखाई दे रही है। मैं उसे अस्पताल लेकर गई, मुझे लगा शायद अणु-बमबारी में उसकी पीठ पर चोट लगी होगी। जांच के बाद पता चला कि उसकी रीढ़ की हड्डी के चार हिस्सों में पस जमा हो गया है। मैंने अपने माता-पिता से उसकी देखभाल उनके घर यामागुची में करने के लिए कहा। कुछ साल बाद हमारी बेटी को हमारी याद आने लगी इसलिए हम उसे हिरोशिमा वापस ले आए और अस्पताल में भर्ती कराया। लेकिन अस्पताल का खर्च उठाना हमारे लिए मुश्किल हो रहा था। मुझे अपने माता-पिता से वो खर्च उठाने के लिए कहना पड़ा। बाद में हम अपनी बेटी को घर ले आए। लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी 1952 में उसकी मौत हो गई।
●शांति के लिए प्रार्थना
मैं अब और युद्ध नहीं चाहती। मैं एक ऐसी दुनिया की कामना करती हूं, जहां हर कोई एक दूसरे के साथ रहे। हम सभी खुश रहेंगे, यदि हम अपना हर दिन दूसरे लोगों का ख़्याल रखते हुए गुजारें।
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