●हालात अणु बम हमले से पहले
उस समय मैं उजिना प्राथमिक स्कूल में चौथी कक्षा की छात्रा थी । मेरे पिता की उम्र उस वक्त 41 साल की थी और वो सैन्य विभाग के जल-पोत मुख्यालय में कार्यरत थे । साल का ज़्यादातर वक्त वो सैन्य जहाज़ पर सवार होकर विदेश में बिताते थे । उजिना कस्बे (हिरोशिमा शहर में मौजूदा मिनामि वॉर्ड) में हमारे घर वो छः महीने में एक बार ही आया करते थे । मेरी माँ उस समय 31 साल की थी, और वो दाई थी, इसलिए ख़तरे से भरा होने पर भी वो शहर नहीं छोड़ सकती थी, क्योंकि उसे मरीज़ों की देखभाल करनी थी । मेरी एक साल पाँच महीने की छोटी बहन और 80 साल की दादी भी हमारे साथ रहा करती थी । कोरिया में पोत-कारखाने का प्रबंधन कर रहे मेरे एक चाचा, अपने बेटे को जापानी स्कूल में पढ़ाना चाहते थे, इसलिए उसे हमारे यहाँ छोड़ गये थे ।
●स्कूली बच्चों को सुरक्षित जगह ले जाने से जुड़ी यादें
अप्रैल 1945 के आसपास, उजिना प्राथमिक स्कूल के तीसरी से छठी कक्षा के बच्चों को सुरक्षित जगह ले जाना तय हुआ था । इसके लिए बच्चों को प्रिफ़ैक्चर के उत्तर में मियोशि कस्बे के साकुगि गाँव या फ़ुनो गाँव (मौजूदा मियोशि शहर) भेजा गया । मुझे मियोशि कस्बे के जोजुन-जि मंदिर भेजा गया ।
मंदिर के खाने में हर चीज़ सोयाबीन से बनी थी । खाने में सोयाबीन से चिपके थोड़े से चावल और सोयाबीन का ही अल्पाहार था । एक दिन मंदिर के पुजारी का बेटा, जो जुनियर हाई स्कूल का छात्र था, उसके खाने के डब्बे में से चावल का एक गोला गायब हो गया । अध्यापकों ने हम सब बच्चों को बुला कर मंदिर के मुख्य कक्ष में बिठाया और कहा, "जिस ने भी चुराया है वो अभी के अभी कबूल करे" ।
मंदिर के पास तोमोए नाम का एक बड़ा-सा पुल हुआ करता था, जिसके नज़दीक एक श्राईन था । इस श्राईन में चेरी का एक बड़ा सा पेड़ था, जहाँ चेरी के फल लगा करते थे । बड़े बच्चे पेड़ पर चढ़ कर चेरी तोड़ कर खाया करते थे । बड़े बच्चों ने मुझे बुलाया और पेड़ के नीचे बाहर की ओर मुँह करके खड़े रह कर पहरेदारी करने को कहा । मैं बिल्कुल अंजान थी । तभी एक बूढ़ा आदमी हमारी ओर चिल्लाता हुआ आया और मुझे पकड़ लिया । फिर उसने ऊपर देखा और दूसरे बच्चों पर चिल्लाते हुए कहा, "सब के सब नीचे उतरो" और बड़े बच्चे भी पेड़ से नीचे उतर आये । वो बूढ़ा आदमी मेरी बाँह पकड़े हुए था और मैं रो रही थी । उसने मुझसे पूछा, "कहाँ से हो", और मैंने जवाब दिया, "जोजुन-जि मंदिर" । "तो फिर ठीक है" यह कह कर उसने मुझे छोड़ दिया । फिर उस बूढ़े आदमी ने कहा, "ठीक यहाँ नीचे प्याज़ और दूसरी सब्ज़ियाँ उग रही हैं । अगर तुम इन पर पैर रखोगी तो इन्हें भला कौन खा पायेगा । तुम्हें ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए । अब रोना बंद करो" । उस शाम वो बूढ़ा आदमी हमारे लिए भाप में पकी शकरकंदी वगैरह लेकर आया । हालांकि शुरु-शुरु में उससे डर लग रहा था, लेकिन असल में वो बड़ा ही दयालु आदमी था । मुझे लगता है, कि उसे हम पर ज़रूर दया आयी होगी, कि देखो भूख के मारे इन्हें चेरी चुरानी पड़ रही है ।
शरण स्थलों में कभी-कभी बच्चों के माँ-बाप मिठाईयाँ भेजा करते थे । हालांकि हमें उन्हें चखने का मौका कभी नहीं मिला । मेरी माँ ने भी मुझे रसे में जमीं सोयाबीन की सख़्त टोफ़ियाँ भेजी थीं, लेकिन वो सब अध्यापकों ने ज़ब्त कर लीं । बड़े बच्चों के अनुसार, वो सारी टोफ़ियाँ शायद, अध्यापकों के पेट में जा चुकी थीं ।
जूँए भी बहुत पड़ चुकी थीं । बुरी हालत थी । हम अख़बार बिछा कर सिर में कंघी किया करती थीं । खून चूस-चूस कर वो जूँए काली पड़ चुकी थीं और हम सब मिलकर उन्हें एक-एक करके नाखून से चटका कर मारा करती थीं । जो कमीज़ पहन रखी थी, उसे मंदिर के आँगन में धूप वाली जगह में सुखाया करती थीं ।
●6 अगस्त
अणु बम हमले से ठीक एक सप्ताह पहले मेरे पिता विदेश से लौट आये थे, इसलिए मैं भी उनसे मिलने जल्दी से घर लौट आयी । और फिर 5 अगस्त को मुझे वापिस शरण स्थल जाना था, लेकिन उस दिन की टिकट न मिल पाने के कारण, वापसी 6 अगस्त की तय हुई ।
6 अगस्त की सुबह, मेरी माँ, मेरी छोटी बहन को पीठ पर बिठा कर मुझे हिरोशिमा स्टेशन तक छोड़ने आयी । पड़ोस की एक बूढ़ी औरत, जो मियोशि के शरण स्थल में अपने पोते से मिलने जा रही थी, वो भी मेरे साथ रेलगाड़ी में सवार हो गयी । हमने गेइबि लाइन पकड़ी और हम मियोशि की ओर जाते रास्ते को पीठ करके बैठ गये । जैसे ही गाड़ी पहली सुरंग में घुसने लगी, हमें तीन पैराशूट दिखायी दिए । फिर गाड़ी सुरंग में घुस गयी और तभी अचानक बम विस्फोट हुआ ।
उसका धक्का बहुत ज़बरदस्त था । कानों में भड़ाम की आवाज़ गूँजी । चूंकि मैं बैठी हुई थी इसलिए सलामत थी लेकिन जो लोग खड़े थे, यहाँ तक की बड़े लोग भी, पीछे की ओर पलट कर नीचे गिर गये । मैं ठीक से सुन नहीं पायी । मुझे यूँ लगा, मानो मेरे कानों में पत्थर भरे हों ।
सुरंग से बाहर निकलने पर अणु बम का धुआँ बहुत ही सुंदर दिखायी दे रहा था । उसे देख कर मैंने साथ की उस बूढ़ी औरत से कहा, "वाह, कितना गज़ब है" । मैं अभी बच्ची थी, इसलिए समझ न पायी, कि हिरोशिमा का क्या हुआ होगा ।
जब हम मियोशि पहुँचे, तो उस बुढ़िया ने कहा, "रेडियो में बता रहे हैं, कि हिरोशिमा पूरी तरह तबाह हो गया है" । लेकिन, मैं फिर भी ठीक से समझ न पायी कि आखिर वहाँ के हालात क्या थे, इसलिए मैं दोपहर में स्कूल में घास काटने गयी । उस समय पहली बार, हिरोशिमा से अणु बम हमले के शिकार लोगों को लेकर एक ट्रक स्कूल पहुँचा । बुरी तरह से झुलसे लोग, एक के बाद एक ट्रक से उतर रहे थे, जिसे देख कर मैं दंग रह गयी । वो आदमी जिसका चेहरा झुलस चुका था और चेहरे की त्वचा गिरी जाती थी, जिसे वो हथेलियों से सहारा दे कर रोके था । वो औरत जिसकी छाती पूरी तरह फट चुकी थी और वो आदमी जो एक बाँस के झाड़ू को उलटा करके उसे लाठी की तरह टिकाए लड़खड़ाते हुए उसी के सहारे चल रहा था । मुझे अब भी वो दृश्य अच्छी तरह याद है । डर लगने की बजाय मुझे यह सब देख कर हैरत हो रही थी ।
●अणु-बम हमले के शिकार मेरे परिजनों के हालात
अणु बम हमले के कुछ तीन दिन बाद, हिरोशिमा से मेरे घर वालों ने मंदिर से संपर्क किया । उसके बाद 12 या 13 अगस्त को मैं छठी कक्षा के अपने एक पड़ोसी लड़के नोबु-चान के साथ रेलगाड़ी से हिरोशिमा लौट आयी । हिरोशिमा स्टेशन पर पिता जी मुझे लेने आये । उनके साथ मैं हिजियामा पहाड़ी के किनारे बनी एक सड़क से घर तक चल कर आयी । मुझे याद है, चलते वक्त पिता जी बता रहे थे, कि परिवार पर क्या बीती । उन्होंने यह भी कहा, "यहाँ अगले 70 सालों तक कुछ नहीं उगेगा" ।
घर पहुँची तो देखा, माँ सिर से पाँव तक चादर से लिपटी थी । वो इसलिए, ताकि मक्खियाँ घावों पर अंडे ना दे सकें, क्योंकि माँ का पूरा शरीर झुलस चुका था । छोटी बहन का भी पूरा चेहरा झुलस कर एकदम काला पड़ गया था । उसके हाथ-पैर भी बुरी तरह झुलस चुके थे, और वो भी चादर से लिपटी हुई थी । वो नन्ही सी जान, माँ की हालत देखकर डर के मारे सारा समय रोती रहती थी ।
जब अणु-बम गिराया गया था, तब मेरी माँ और बहन, एन्को पुल पर एक ट्राम का इंतज़ार कर रहे थे । उससे करीब एक घंटा पहले जब हवाई हमले का सायरन बजा था, तब माँ ने अपनी रक्षा टोपी, पड़ोस की एक बूढ़ी औरत को दे दी थी, जिसका कहना था, कि वो अपनी टोपी भूल आयी है । इस वजह से माँ, अणु-बम की रोशनी में पूरी तरह नहा गयी थी । मेरी बहन, माँ की पीठ पर थी, इसलिए उसका बायां हाथ-पैर और चेहरा जल गया था । माँ ने बहन को पीठ से उतार कर, रास्ते में जहाँ कहीं भी आग बुझाने का पानी दिखा, बहन को भिगोते हुए भागी और हिरोशिमा स्टेशन के पीछे पूर्वी अभ्यास मैदान में शरण ली ।
जब अणु-बम फटा, तब मेरी दादी घर पर ही थी । हालांकि मकान में आग नहीं लगी थी, मगर वो बुरी तरह टूट-फूट गया था ।
पिता जी और चचेरे भाई ने माँ और बहन की तलाश में पूरे दो दिन तक शहर के चक्कर लगाये । जब वो मिले, तो माँ का शरीर झुलस कर इतना सूज चुका था, कि आदमी और औरत का भेद करना मुश्किल था । इत्तेफ़ाक़ से 6 अगस्त को माँ वो पोशाक पहन कर गयी हुई थी, जिसका कपड़ा पिता जी ने विदेश से भेजा था । कपड़े के बाल बाल बचे हिस्से में से एक कत्तर फाड़ कर माँ ने बहन के हाथ में पहचान के तौर पर बाँध दी थी । जब मेरे पिता और चचेरा भाई उन्हें ढूंढ़ते हुए वहाँ पहुँचे, तो मेरी एक साल की छोटी बहन ने चचेरे भाई को पहचान कर उसे आवाज़ दी "आ-चान" । और तब बहन के हाथ में बँधी कत्तर देख कर दोनों को पहचान लिया गया । मेरी माँ ने कहा, "मेरा तो वक्त हो गया है, तुम बस इस बच्ची को लेकर घर जाओ", लेकिन पिता जी, दोनों को एक बड़ी दुपहिया गाड़ी में बिठा कर घर ले आये ।
●माँ की मौत
15 अगस्त को माँ चल बसी । पिता जी ने एक पुराने पेड़ से बिना ढक्कन का सादा सा ताबूत बना कर घर के पीछवाड़े में एक खाली जगह में माँ का दाहसंस्कार किया । वहाँ पर हर कोई शवों का दाहसंस्कार करता था, जिस वजह से सारी बदबू हमारे घर घुस आती थी । इतनी बदबू फैल जाती थी, कि बर्दाश्त से बाहर थी ।
मरते समय माँ ने दादी से कहा था, "सासू माँ, मैं एक बड़ा आलू खाना चाहती हूँ"। युद्ध के दौरान भोजन की कमी होने के कारण माँ, कपड़े और दूसरी चीज़ें लेकर गाँव जाया करती थी और उनके बदले आलू और खाने-पीने का दूसरा सामान लाया करती थी । मुझे लगता है, कि जो आलू उसे बदले में मिलते थे, उसमें से वो छोटे वाले खाया करती थी । छोटे आलू बहुत कड़वे होते हैं, और आजकल तो शायद ही खाये जाते हों ।
माँ के श्राद्ध पर मैं हमेशा तोरो नागाशि (एक समारोह जिसके दौरान नदी में कागज़ की कंदीलें तैरायी जाती हैं) के लिए आती हूँ । उबले हुए बड़े आलूओं की भेंट चढ़ाती हूँ । आज भी जब कोई बड़ा आलू देखती हूँ, तो दिल करता है, कि काश माँ को यह खिला पाती ।
●युद्ध के बाद कस्बे का हाल
उजिना प्राथमिक स्कूल के आगे नदी किनारे, एक खुले मैदान में शवदाह किया जाता था । टिन की नालीदार चादरों से शवों को चारों तरफ़ से ढक कर जलाया जाता था । टिन की नालीदार चादरों में शव का सिर फँसाने के लिए एक छेद होता था । हम बच्चे जलते शवों के पास से होते हुए समुद्र में तैरने जाया करते थे । इसलिए वहाँ से गुज़रते वक्त बहुत सी अस्थियों के ऊपर से होकर जाना पड़ता था और कई बार मैं सोचती थी, कि "अरे, अब सिर जल रहा है" । मेरे प्राथमिक स्कूल की छठी कक्षा में आने तक, उस जगह पर शवदाह किया जाता रहा ।
युद्ध के बाद ज़िंदगी वाकई फटेहाल थी । सिर्फ़ हम ही नहीं, उस वक्त हर किसी का यही हाल था ।
●युद्ध के बाद छोटी बहन का हाल
मेरी छोटी बहन, जो अणु-बम हमले के वक्त माँ के साथ थी, वो बच गयी । उस वक्त, उसकी उम्र के किसी नन्हे बच्चे का बचना चमत्कार माना गया । बड़े होने तक वो बस यही सुनती आयी, "अच्छा हुआ, तुम बच गयी । अच्छा हुआ, तुम ज़िंदा हो" ।
लेकिन मेरी बहन के पैर में भीषण फफोले हो गये थे और उसका पैर विकृत हो चुका था । वो जूते नहीं पहन सकती थी, इसलिए उसे हमेशा गेता (लकड़ी की जापानी खड़ाऊं) पहननी पड़ती थी । उन दिनों बहुत से लोग गेता पहना करते थे, इसलिए आमतौर पर उसे कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन जब कोई फ़ील्ड ट्रिप या खेल उत्सव होता था, तो उसे दिक्कत होती थी, क्योंकि वो वहाँ गेता नहीं पहन सकती थी । कोई चारा न होने पर वो दो जोड़ी फ़ौजी जुराबे पहना करती थी ।
पाँव को लेकर बहन को बहुत बुरी तरह चिढ़ाया जाता था । उस वक्त अफ़वाह फैली, कि अणु-बम की बीमारी संक्रामक है, इसलिए लोग बहन की ओर इशारा करते हुए कहते, "उंगलियाँ सड़ रही हैं", "पास से देखोगे, तो तुम्हें भी बीमारी हो जायेगी" । अणु-बम हमले के कई साल गुज़र जाने के बाद भी, जब वो प्राथमिक स्कूल जाने लायक हुई, तो उसे किसी तरह का तमाशा समझा जाता और लोग दूर-दूर से उसे देखने आया करते ।
मगर मेरी बहन ने मुझे या दादी को कभी नहीं बताया, कि लोग उसके साथ ऐसा बर्ताव कर रहे थे । अपने दर्द की शिकायत किये बिना वो बस इतना कहती थी, "दादी, अच्छा हुआ न मैं बच गयी" । बचपन से वो बार-बार यही सुनती आयी, "अच्छा हुआ बच गयी । इतना झुलस जाने के बाद भी बच गयी, अच्छा हुआ", इसलिए अब इस बारे में सोचने भर से उसे दर्द होता है । पर हाल में जब मैंने बहन की डायरी पर नज़र डाली, तो उसमें कहीं लिखा था, "उस वक्त सोचती थी, कि मर ही जाती तो अच्छा था" । यह पढ़कर मैं एक बार फिर सोचने पर मजबूर हो गयी, कि उसके लिए यह सब कितना कठिन रहा होगा ।
उसको कहा गया था, कि अगर वो अपने पैर का ऑप्रेशन कराना चाहती है, तो उसे 15 साल का होने के बाद ऐसा कराना होगा । सीनियर हाई स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों के दौरान, आखिरकार वो अपना ऑप्रेशन करा पायी, जो वो लंबे समय से चाहती थी । मेरी बहन इस पल का वाकई बहुत इंतज़ार कर रही थी । वो हमेशा कहती थी, कि जब वो हाई स्कूल में दाखिल हो तो वो जूते पहनने के काबिल होना चाहती है । लेकिन इसके बावजूद पैरों में जूते पहन पाना उसके लिए संभव न हुआ । हालांकि डॉक्टरों ने उसके विकृत पैर को ठीक करने की कोशिश में उसके पेट और नितंब से त्वचा प्रत्यारोपित की, लेकिन प्रत्यारोपित की गयी त्वचा काली पड़ गयी और उसके पाँव की कनिष्ठा उंगली, अपनी जगह से करीब 3 सैंटिमीटर हट गयी थी । ऑप्रेशन से पहले मेरी बहन का कहना था, "अब मैं स्पोर्ट्स शूज़ भी ठीक तरह से पहन पाउंगी", लेकिन अणु-बम हमले को आज 65 साल बीत चुके हैं और वो अब भी ढंग से जूते नहीं पहन सकती ।
उसकी कनिष्ठा उंगली में रगड़ से दर्द होने लगता था, इसलिए उसने स्पोर्ट्स शूज़ में छेद करके पहनने की कोशिश की, लेकिन अब वो उंगली, छेद से रगड़ खाने लगी और उसमें घाव हो गया । ऐसा कोई दिन न था, जब उसके पाँव से खून न निकला हो । यह सोच कर कि अन्य लोग जब खून से सने उसके जूते देखेंगे तो बुरा महसूस करेंगे, वो टूथपेस्ट से उस चिपके हुए खून को ढका करती थी ।
जब मेरी बहन अणु बम में जीवित बचे लोगों के अस्पताल में भर्ती हुई, तो उसकी मुलाकात डॉक्टर तोमिन हारादा से हुई, जिन्होंने उसे कहा, "अगर कुछ बताना चाहती हो, तो ज़रा भी न झिझकना" । जब मेरी बहन ने सीनियर हाई स्कूल पास किया, तो उसने डॉक्टर हारादा से बात की, जिन्होंने उसे एक जापानी मंत्री से मिलवाया, जो लॉस एंजेलस में रहा करता था । बहन के सीनियर हाई स्कूल में दाखिल होने से पहले ही पिता की मौत हो जाने के कारण, उस समय हमारे घर में पैसों की तंगी थी । सीनियर हाई स्कूल के एक अध्यापक ने मेरी बहन को पार्ट टाईम नौकरी दिलवायी, जहाँ उसने 20 साल की उम्र तक बड़ी लगन से काम किया और जब उसके पास अमरीका की एक तरफ़ की टिकट के पैसे इकठ्ठा हो गये, वो अमरीका के लिए रवाना हो गयी ।
मेरी बहन, मंत्री जी के यहाँ रहा करती थी, और उसे लौंडरी में काम मिल गया, जहाँ से उसका ख़र्चा निकलने लगा । लगता है, कि वो वक्त उसके लिए बहुत कठिन रहा, और आज भी वो लौस एंजेलस में मेहनत कर रह रही है । हालांकि उसका मानना था, कि आम लोगों की तरह उसकी कभी शादी नहीं होगी, लेकिन अमरीका में उसकी शादी एक जापानी से हो गयी और उनकी तीन संतानें हैं ।
●ओसाका की आप बीती
मेरी बहन के ओप्रेशन के करीब एक सप्ताह बाद, मैं अपनी एक सहेली से मिलने ओसाका गयी । मेरी बहन ने मुझसे कहा, "मेरी हालत अब ठीक है, इसलिए जाओ, ओसाका हो आओ" ।
मैंने एक लोकल एक्सप्रेस पकड़ी और शाम को वहाँ पहुँच गयी, लेकिन मुझे मेरी सहेली के घर का पता न मालूम था, इसलिए पता पूछने पुलिस बॉक्स पर रुकी । वो एक युवा पुलिसकर्मी था, बहुत नम्र था, और वो करीब एक घंटे तक मेरे साथ घर ढूंढता रहा । जब मेरी सहेली का घर मिला, तो मैंने पुलिस वाले से कहा, "आपका बहुत बहुत धन्यवाद । आपने बहुत मदद की" । तब उसने पहली बार मेरे से पूछा, "आप कहाँ से हैं" और मैंने उसे बताया, "मैं हिरोशिमा से हूँ" । वो आदमी अचानक एक कदम पीछे हटते हुए बोला, "वो हिरोशिमा जिस पर अणु-बम गिरा था" । मैंने जवाब दिया, "हाँ" । इस पर उसका कहना था, "एक महिला हिरोशिमा से—ओह यह तो ठीक नहीं मेरे लिये । हिरोशिमा से अणु-बम का शिकार हुई एक महिला" । उसने यह सब इस भाव से कहा, मानो उसे मुझसे कोई रोग होने वाला हो । उस समय तक मैंने नहीं सोचा था, कि मैं अणु-बम की इतनी चपेट में आयी थी, इसलिए मैं इस हादसे से पूरी तरह स्तब्ध थी ।
इस घटना के बारे में मैं अपनी बहन को नहीं बता पायी । मैंने ओसाका में अपनी सहेली से इस बारे में बात की, लेकिन उसने मुझसे कहा, "तुम्हें अपनी बहन को यह बिल्कुल नहीं बताना चाहिए, क्योंकि इससे उसे बहुत ख़राब लगेगा" । उसके बाद मैंने कभी किसी को नहीं बताया, कि मैं हिरोशिमा से हूँ ।
●कपड़े की दुकान की घटना
यह घटना, दसियों साल पहले की है, जब मैं कपड़े की दुकान पर एक ग्राहक की मदद कर रही थी । एक अंजान महिला अचानक मेरे पास आयी और मेरी बहन का नाम लेकर बोली, "क्या आप उसकी बड़ी बहन हैं", मैंने कहा, "जी, बिल्कुल सही । लेकिन क्या हुआ ? आप उसे कैसे जानती हैं" ? वो महिला फ़ुरुए में रहती थी और उस समय तक मेरी बहन को लेकर वहाँ तक अफ़वाहें फैल चुकी थीं ।
ओसाका में जो कुछ हुआ और दूसरी अन्य घटनाओं के कारण, मैं अपनी बहन के अमरीका जाने के फ़ैसले के हक़ में थी । मैंने सोचा, अगर वो जापान में चिढ़ाये जाने और भेदभाव से बचना चाहती है, और एक अजनबी देश जाना चाहती है, तो शायद इसी में उसकी भलाई होगी ।
●शाँति की कामना
मेरा मानना है, कि वो लोग जिन्होंने अणु-बम हमले की विभीषिका असल में नहीं झेली है, वो पीड़ितों का दर्द नहीं समझ सकते । अपनी उंगली खुद काटने से शायद आपको पहली बार दर्द का अहसास हो, लेकिन आप किसी दूसरे व्यक्ति की उंगली कटने के दर्द को नहीं समझ सकते । इसलिए किसी से अणु-बम हमले का अपना अनुभव साझा करना, वाकई में मुश्किल काम है ।
युद्ध ने हमारे दिलों के भीतर तक चोट पहुँचायी । न केवल बाहरी ज़ख्म, बल्कि तरह-तरह के ज़ख्म अब तक हरे हैं, और दसियों साल बीत जाने के बाद भी ये ज़ख्म दर्द देते हैं । मेरी बहन को बचपन से युद्ध या अणु-बम के बारे में बात करने से नफ़रत है । जब भी हम इस बारे में बात करते हैं, वो हमेशा वहाँ से चली जाती है । अमरीका जाने के बाद, वो अपने ज़ख्म छुपाने के लिए हमेशा मोटी जुराबे पहनती है और उसने दोबारा अणु-बम के बारे में कभी बात नहीं की ।
युद्ध कभी होना ही चाहिए ।
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