●ज़िंदगी अणु बम हमले से पहले
उस समय मेरी उम्र 17 साल की थी । मैं अपनी माँ और बड़ी बहन के साथ हिरोशिमा शहर के मिसासा-होन्माचि कस्बे के ब्लॉक नंबर तीन (मौजूदा निशि वॉर्ड) में रहा करती थी । मेरे पिता गुज़र चुके थे और मेरे तीन बड़े भाई थे, जिनमें से सबसे बड़े की शादी हो गयी थी और वो अलग रहता था, जबकि मेरे दो अन्य भाईयों को सेना से बुलावा आया था और वो यामागुचि प्रिफ़ैक्चर में तैनात थे ।
उन दिनों मैं हिरोशिमा केन्द्रीय प्रसारण केन्द्र के सार्वजनिक मामलों के विभाग में काम करती थी । यह केन्द्र, कामि-नागारेकावा कस्बे (मौजूदा नाका वॉर्ड में नोबोरि कस्बे) में था, जहाँ आसपास के मकानों को खाली करवा कर उन्हें नष्ट कर दिया गया था और अब वो जगह एक खुले मैदान की तरह हो गया थी । मुझे याद है, हमारे केन्द्र से सेना से जुड़ी काफ़ी ख़बरें प्रसारित की जाती थी, इसलिए केन्द्र की खिड़कियों को हवाई हमलों का मुकाबला करने लायक मज़बूत बनाया गया था ।
●6 अगस्त
उस दिन की सुबह, हवाई हमले का सायरन बजा था और ऐसे में घर से निकलना मुश्किल हो गया था, जिसके कारण मुझे दफ़्तर पहुँचने में देर हो गयी थी । सायरन बंद हुआ और मैं काम पर करीब 8 बजे पहुँची । हमेशा की तरह, अपने सहकर्मियों के साथ मिल कर मैंने दफ़्तर की साफ़-सफ़ाई करना शुरु कर दी । जब केन्द्र-प्रबंधक के कार्यालय की सफ़ाई करने गयी, तो आँगन से मैंने एक महिला को कहते सुना, "बी-29 (विमान) उड़ रहा है"। उसकी आवाज़ सुनकर वो विमान देखने का मन किया और जैसे ही खिड़की के पास जाने की सोची, तभी अचानक खिड़की के बाहर एक चमकदार रोशनी सी हुई । माचिस जलाते वक्त जो लाल रंग की चिंगारी निकलती है, यह रोशनी वैसी ही चिंगारी का बहुत बड़ा प्रचंड रूप थी । मैंने तुरंत अपने दोनों हाथों से आँख-कान ढक लिये और वहीं नीचे बैठ गयी । हमें उस समय यही सिखाया गया था, कि बम विस्फोट होने पर ऐसा करें । अँधेरे में मुझे भारहीनता का अहसास हुआ और मेरे पूरे शरीर में कड़कड़ाहट-सी महसूस हुई । दर्द हो रहा था या नहीं हो रहा था, कुछ कह नहीं सकती, लेकिन एक बड़ा ही अजीब-सा अहसास था । मुझे लगा कहीं मैं मर ही तो नहीं जाऊंगी । उस वक्त ध्यान नहीं दिया, लेकिन विस्फोट से काँच के टुकड़े चूर-चूर होकर मेरे चेहरे और बायीं भुजा में घुस गये और मेरा पूरा शरीर खून से लथ-पथ हो गया था । बाएं गाल में तो अब भी शीशे का टुकड़ा बचा हुआ है ।
कुछ देर तक ज्यों का त्यों बने रहने के बाद, गलियारे से लोगों की धीमी-सी आवाज़ सुनायी दी । कमरे में घोर अँधेरा था और कुछ दिखायी नहीं दे रहा था । यह सोच कर, कि बहर हाल यहाँ से निकला जाए, मैंने गलियारे से आ रही आवाज़ों की ओर जैसे ही बढ़ना शुरु किया, एक आदमी की पीठ मेरे हाथ लगी । "ओह ! इस आदमी के साथ निकलना ठीक रहेगा, मैं अभी मरी नहीं हूँ" यह सोच कर मैंने उस आदमी की बैल्ट कस कर पकड़ी और उसके पीछे-पीछे चलने लगी । आख़िरकार हम दरवाज़े के पास पहुँच ही गये । दरवाज़े के पास लोग इकठ्ठा हो गये थे । सब ने मिलकर वो भारी दरवाज़ा खोला और बाहर निकलने में कामयाब हो गये । उषाकाल की तरह अँधेरा छाया था और वो सब चीज़ें जो विस्फोट में उड़ गयी थीं, अब आसमान से गिर रही थीं । केन्द्र से बाहर आये लोगों के चेहरे एकदम काले पड़ गये थे, बाल सिरे से खड़े थे, शरीर खून से लथ-पथ था और कपड़ों के चीथड़े उड़े हुए थे । जब तक हमने एक दूसरे की आवाज़ न सुनी, हम एक-दूसरे को पहचान न पाये ।
हमें लगा, कि केन्द्र को निशाना बना कर बम गिराया गया है, जो कि बहुत बुरा हुआ है । पास में चूगोकु शिम्बुन कंपनी की इमारत में केन्द्र का सब्सक्रिप्शन विभाग का एक शाखा कार्यालय था, मैंने सोचा कि क्यों न वहाँ जाया जाये, इसलिए मैं सार्वजनिक मामलों के विभाग की कुछ महिलाओं के साथ बाहर मैदान में चली गयी । तब पहली बार पता लगा, कि नुकसान सिर्फ़ हमारे केन्द्र को नहीं हुआ है । आसपास की सारी इमारतें मिट्टी में मिल चुकी थीं, यहाँ-वहाँ से आग की लपटें उठ रही थीं । चूगोकु शिम्बुन कंपनी की इमारत की पाँचवी और छठी मंज़िल में हमारा शाखा कार्यालय भी जल रहा था, और उसकी खिड़कियों से आग की तेज़ लपटों के फ़व्वारे निकल रहे थे । इसलिए हमने केन्द्र के नज़दीक शुक्केइएन उद्यान की ओर भागने का फ़ैसला किया । लपटें नज़दीक आती जा रही थीं । इमारतों के मलबे में फँसे लोगों की चीखें, अपने परिजनों को ढूँढते लोगों की आवाज़ें, मैं सब सुन पा रही थी । मगर, मैं बस भागती जा रही थी । किसी की कोई मदद नहीं कर पायी ।
शुक्केइएन उद्यान में बहुत से लोगों ने शरण ले रखी थी । हमने उद्यान के भीतर एक तालाब के ऊपर बना पुल पार किया और क्योबाशि नदी किनारे आ गये । लेकिन, अब उद्यान के पेड़ भी जलना शुरु हो गये थे और उनकी लपटें धीरे-धीरे नदी किनारे तक पहुँचने लगी थीं । और तभी नदी के नज़दीक चीड़ का एक लंबा-सा पेड़, बड़ी गड़गड़ाहट के साथ जलना शुरु हो गया । हम नदी में कूद पड़े और आसपास का नज़ारा देखने लगे, जबकि पानी हमारी छाती तक था । अब दूसरी ओर के किनारे पर ओ-सुगा कस्बा भी आग की चपेट में आ गया और लपटों की चिंगारियाँ हमारे पर एक-एक करके गिरनी शुरु हो गयीं । दोनों तरफ़ से बढ़ती आग की गर्मी बर्दाश्त से बाहर थी, इसलिए हम शाम तक लगातार पानी में डुबकी लगाते रहे ।
इतने सारे लोग भाग कर नदी किनारे आ रहे थे, कि हमारे आसपास बैठने तक की जगह न बची । पास में ही शायद सेना तैनात रही होगी, इसलिए वहाँ बहुत से सैनिक दिखायी दे रहे थे । हमले के वक्त उन्होंने टोपियाँ पहनी हुई थीं, इसलिए उनके बाल प्लेट की शक्ल में अब भी मौजूद थे, जबकि उनका बाकि शरीर पूरी तरह से झुलस चुका था और वे दर्द में छटपटा रहे थे । अपने बच्चे को थामे चुपचाप बैठी एक औरत का धड़ फटे हुए थे और मुझे लगा, कि अब तक तो उसका बच्चा शायद मर चुका होगा ।
जले हुए और घायल लोगों की आवाज़ें लगातार सुनायी पड़ रही थीं, "कोई पानी पिला दे, अरे भाई कोई पानी पिला दे", जबकि कुछ लोग यह भी कह रहे थे, "तुम्हें पानी नहीं पीना चाहिए" । बुरी तरह झुलसे ऐसे बहुत से लोग नदी में कूद पड़े थे । शायद वो दर्द सहन नहीं कर पा रहे थे । नदी में कूदे लोगों में से ज़्यादातर, सतह पर ज़िंदा नहीं लौट पाये और नदी के बहाव में बह गये । नदी की ऊपरी धारा से शव बहते आ रहे थे और नदी की चौड़ाई भरती जा रही थी । हम नदी में थे और शव हमारी ओर बह कर आ रहे थे, इसलिए मैं उन्हें हाथ से धकेल रही थी, ताकि वो बहाव में नीचे की ओर बहते रहें । उस वक्त मैं इतनी सहमी हुई थी, कि बिल्कुल डर नहीं लगा । नरक से भी भयावह वो दृश्य मैंने अपनी इन्हीं आँखों से देखा ।
आग इतनी भीषण थी, कि हम कहीं और जा ही नहीं पाये, इसलिए हमारा पूरा दिन शुक्केइएन उद्यान के नदी किनारे बीता । सूरज ढलने को था कि तभी एक छोटी बचाव नौका, केन्द्र के कर्मचारियों की तलाश में आयी और पूर्वी अभ्यास मैदान के राहत शिविर में हमारा जाना तय हुआ । वो छोटी नौका हमें नदी के दूसरी ओर रेतीले छोर पर ले गयी । मुझे माँ की चिंता थी, जो घर पर अकेली थी, इसलिए मैंने उनसे कहा, कि मैं राहत शिविर की बजाय घर जाना चाहती हूँ । इस पर मेरे सहकर्मी ने कहा, "बेवकूफ़ मत बनो । शहर वापिस जाना ख़तरे से खाली नहीं" और इस तरह उसने मुझे ज़बरदस्ती रोक लिया । मेरा घर हिरोशिमा शहर के पश्चिमी हिस्से में मिसासा होम्माचि में था, इसलिए वहाँ पहुँचने के लिए मुझे सुलगते हुए इलाके के बीच से होकर गुज़रना था । हर कोई मेरे वहाँ जाने के ख़िलाफ़ था, इसलिए न चाहते हुए भी उनके साथ जाना पड़ा, लेकिन जैसे ही मुझे मौका मिला, मैं उनसे अलग हो गयी । कुछ लोगों ने मुझे जाते हुए देख आवाज़ लगायी, लेकिन मैंने उनसे माफ़ी माँगते हुए कहा, "मुझे माफ़ करना", और फिर अकेले घर की ओर चल दी ।
●घर वापसी का रास्ता
सहकर्मियों से अलग होने के बाद, मैं क्योबाशि नदी पर बने तोकिवा पुल पर पहुँची । पुल के पश्चिम में हाकुशिमा की ओर से ज़ख्मी लोगों के आने का ताँता लगा था । कोई भी पश्चिम की ओर नहीं जा रहा था । तब मुझे दो रेल कर्मचारी मिले जो पुल पार करना चाहते थे । वो योगोगावा स्टेशन जा रहे थे, इसलिए मैंने उनसे अनुरोध किया, "कृप्या मुझे साथ ले चलें", तो इस पर उन्होंने इंकार करते हुए कहा, "हमें मालूम नहीं, कि हम वहाँ पहुँच भी पाते हैं या नहीं, इसलिए तुम्हें साथ नहीं ले जा सकते । तुम राहत शिविर जाओ" । लेकिन मैंने हार न मानी और चार-पाँच मीटर की दूरी बनाते हुए चुपचाप उनके पीछे चलती रही । लपटों के बीच में से गुज़रते हुए वो जैसे ही पीछे मुड़ कर देखते, मैं रुक जाती और फिर उनके पीछे चल देती । मैं लगातार उनका पीछा कर रही थी, इसलिए आख़िरकार उन्होंने मुझे कहा, "अच्छा ठीक है । जहाँ-जहाँ हम चलें वहीं-वहीं चलती आओ", और फिर उन्हें जहाँ भी ख़तरा नज़र आता, वो मुझे आगाह करते गये । लपटों से बचते-निकलते हमने डाक सेवा एजेन्सी अस्पताल पार किया और मिसासा पुल पर आ पहुँचे । पुल के दोनों तरफ़ घायल सैनिक कतार में बैठे थे, और वहाँ चलना भी दूभर था । वो शायद पास में ही तैनात रहे 104 चूगोकु युनिट के सैनिक थे । सभी सैनिक कराहते हुए दर्द से तड़प रहे थे । घायल सैनिकों पर अपने पैर पड़ने से बचाते हुए हमने किसी तरह पुल पार किया और रेल पटरी पर पहुँचे और फिर पटरी के साथ-साथ चलते हुए योकोगावा स्टेशन पहुँचे । वहाँ मैं रेल कर्मचारियों से अलग हो गयी । मुझे याद है, अलग होते समय उन्होंने मुझसे कहा था, "ध्यान से घर जाना" ।
●माँ से दोबारा मिलना
मैं अकेली मिसासा स्थित अपने घर की ओर चलती गयी । अँधेरा छा चुका था । सड़क के दोनों ओर अब भी आग लगी थी । जहाँ-जहाँ लपटें तेज़ थीं, वहाँ से भाग कर निकलना पड़ रहा था । मेरा घर, योकोगावा से मिसासा होकर उत्तर दिशा की ओर जाती सड़क के सामने था । जब आखिरकार घर पहुँची, तो देखा कि घर जल कर ख़ाक हो गया था और माँ पास की सड़क पर खड़ी थी । माँ को ज़िंदा देख मैंने खुशी के मारे उसे गले लगा लिया और हम दोनों ने रोना शुरु कर दिया ।
जब अणु-बम फटा था तब मेरी माँ पहली मंज़िल पर आइने के सामने बैठी थी । पहली मंज़िल के कमरे अंदर की ओर ढह गये थे, लेकिन माँ एक कोने वाले कमरे में थी, जो ढहने से बच गया था । सीढ़ियाँ इस्तेमाल करना मुश्किल था, किसी ने माँ के लिए सीढ़ी लगायी और इस तरह वो वहाँ से नीचे उतरने में कामयाब हो गयी ।
सुबह तक मकान ढहा रहा, लेकिन बाद में आग धीरे-धीरे फैलते हुए नज़दीक आयी और दोपहर को मकान में आग लग गयी । मकान में आग लगने से पहले, माँ ने सोचा कि कम से कम गद्दे तो निकाल लिए जाएं, इसलिए माँ ने गद्दे बाहर की ओर फैंक दिये थे, लेकिन जान बचाते भागते लोग, वो गद्दे सिर पर उठा कर अपने साथ ले गये । हवाई हमले से बचने के लिए घर के आंगन में हमने एक गड्ढा खोद रखा था, जहाँ हमने कपड़े और दूसरा ज़रूरी सामान रखा था, लेकिन आग की लपटें वहाँ भी पहुँच गयीं और वो सब सामान भी जल कर ख़ाक हो गया । माँ ने आग बुझाने के लिए घर के सामने बहती नहर से पानी की बाल्टियाँ भर-भर कर डाली थीं और तुरंत वो गड्ढा खोद निकाला था, लेकिन उसमें दबा लगभग सारा सामान जल चुका था । पड़ोसियों ने माँ को मिताकि भाग चलने का सुझाव दिया, लेकिन माँ को मेरी और बहन की चिंता थी, इसलिए जब मकान जल रहा था, तो उसने सड़क पार एक खेत में शरण ली और बहन और मेरी घर लौटने की राह देखी ।
हम माँ-बेटी ने वो रात खेत में गुज़ारी । पूरी रात हमारे घर के सामने की सड़क से लोग भागते नज़र आये, जबकि कुछ राहत और बचाव के लिए आ-जा रहे थे । मैं बस वो नज़ारा दो टूक देखे जा रही थी और सोच रही थी, कि अब मेरा क्या होगा । आधी रात को कुछ राहतकर्मियों ने हमें खाने के लिए चावल के कुछ गोले दिये और अभी आँख लगी ही थी, कि सूरज निकल पड़ा ।
●बड़ी बहन की तलाश
7 तारीख को भी लोगों का आना-जाना बंद न हुआ । बड़ी बहन–एमिको अब तक घर न लौटी थी । माँ को उसकी चिंता सताए जा रही थी और वो रोते हुए कह रही थी, "उसका क्या हुआ होगा ? कहीं वो मर ही तो नहीं गयी" ? माँ की यह हालत मुझसे देखी न गयी और मैं अगले ही दिन 8 तारीख को पड़ोस में रहने वाली बहन की एक सहेली के साथ उसकी तलाश में निकल पड़ी । एक बार फिर मैंने नरक का वो नज़ारा देखा ।
मेरी बहन शिमोनाकानो कस्बे (मौजूदा नाका वॉर्ड के फ़ुकुरो कस्बे) में हिरोशिमा केन्द्रीय टेलिफ़ोन ब्यूरो में काम करती थी । मैं योकोगावा से तोकाइचि कस्बे (मौजूदा नाका वॉर्ड का तोकाइचि कस्बा, ब्लॉक नंबर 1) से होते हुए ट्राम के रास्ते पर चलती गयी । जले हुए अवशेषों को हटाने के लिए अब तक कुछ नहीं किया गया था, लेकिन ट्राम का रास्ता चौड़ा था, इसलिए मैं किसी तरह वहाँ तक पहुँच पायी । शहर, लाशों से भरा था । अगर ध्यान न दिया जाता तो किसी भी शव पर पैर पड़ सकता था । तेरा कस्बे (मौजूदा नाका वॉर्ड) के पास एक घोड़ा, गोल बड़ा-सा फूल कर मरा पड़ा था । तोकाइचि कस्बे के आसपास, झुलस कर काला पड़ चुका एक आदमी अपनी दोनों बाहें फैलाये बिना हिले डुले खड़ा था । मुझे कुछ अजीब लगा, इसलिए जब करीब से देखा, तो पता लगा, कि वो आदमी खड़े-खड़े ही मर गया था । इधर-उधर बहुत से लोगों ने आग बुझाने की पानी की टंकियों में अपने सिर दिए हुए थे और अब उनके शवों का एक दूसरे पर ढेर लगा था । सड़कों के किनारे, लाशों का ढेर लगा था, जबकि उनके बीच में कुछ लोग अब भी साँस ले रहे थे, कुछ लोगों की कराहने की आवाज़ें भी सुनाई पड़ती थीं और कुछ लोग, "पानी, पानी" कह रहे थे । कोई भी ठीक हालत में नहीं था वहाँ । हर किसी के कपड़े जल चुके थे, शरीर भी झुलस कर फूल चुके थे । एक दम काली गुड़ियों की तरह लग रहे थे । अगर मेरी बड़ी बहन यहाँ होती, तो भी इस माहौल में उसे ढूंढ पाना नामुमकिन था । लाशों के ऊपर कदम रखते हुए मैं आइओइ पुल पार करके कामिया कस्बे (मौजूदा नाका वॉर्ड) पहुँची, लेकिन हम उससे आगे नहीं बढ़ पाये और मिसासा लौट आये । मैंने सोचा, कि इन परिस्थितियों में तो बहन ज़िंदा न होगी ।
मगर, खुशकिस्मती से अणु-बम हमले के एक सप्ताह बाद मेरी बहन अकेले घर लौट आयी । हमले के वक्त टेलिफ़ोन ब्यूरो में वो बुरी तरह ज़ख्मी हो गयी थी और बचने के लिए हिजियामा पहाड़ी की ओर दौड़ी थी, जिसके बाद उसे इलाज के लिए आकि तहसील के काइताइचि कस्बे (मौजूदा काइता कस्बा) के एक राहत शिविर ले जाया गया था । वहाँ वो एक हफ़्ता रही और जब उसने सुना कि एक ट्रक हिरोशिमा शहर राहत पहुँचाने जा रहा है, तो बहन ने उन लोगों से उसे साथ ले जाने का अनुरोध किया । एक बार तो उन्होंने बहन को मना करते हुए कहा, कि गंभीर रूप से घायल व्यक्ति को ट्रक में नहीं ले जा सकते, लेकिन बहन, घर लौटने का मन बना चुकी थी, इसलिए जैसे ही उसे मौका मिला, वो उछल कर ट्रक के पीछे बैठ गयी और इस तरह वो तोकाइचि कस्बे पहुँची । तोकाइचि कस्बे से मेरी बहन चलते हुए थके हाल घर लौटी । फटे कपड़ों में मेरी बहन खून से नहायी हुई थी और पैरों में अलग-अलग जूते पहन रखे थे । अगर किसी को पता न हो तो सोचेगा, कि इस लड़की की दिमागी हालत ठीक नहीं है । हमारा मकान जल चुका था, इसलिए माँ की एक सहेली ने अपने घर के एक कोने में बहन को सोने की जगह दी । उसके तुरंत बाद उसने बिस्तर पकड़ लिया और वो ज़िंदगी और मौत के बीच लटकने लगी ।
●मेरी बहन की देखभाल
बहन की पूरी पीठ में शीशे के टूकड़े घुस चुके थे और उसकी बाजू अनार की तरह फट गयी थी । हर दिन सुई से मैं उसकी पीठ से शीशे के टुकड़े निकाला करती थी, लेकिन मक्खियों ने उसके घावों में अंडे दे दिये थे । जिस महिला के घर मेरी बहन ठहरी थी, उसकी बेटी अणु-बम हमले में मारी गयी थी, जिससे हमें लगा कि हम उसे परेशानी पहुँचा रहे हैं, इसलिए हम अपने मकान के जले हुए अवशेषों में लौट आये । मेरा सबसे बड़ा भाई आया और जली हुई लकड़ी इकठ्ठा कर उसने एक छोटा-सा शिविर बनाया, जो हमें बारिश से बचा सके, इसलिए हम वहाँ चले गये ताकि मेरी बहन की देखभाल की जा सके । मेरी बहन जिसने बिस्तर पकड़ा हुआ था, उसे राहत शिविर भी नहीं ले जाया जा सकता था, इसलिए किसी ने हमें थोड़ी-सी मरहम दी लेकिन मेरी बहन को पूरी तरह ठीक करने के लिए वो काफ़ी न थी । उसके बाल पूरी तरह से झड़ चुके थे और खाँसी के साथ उसे खून आ रहा था, जिससे हमें कई बार ख़्याल आया, कि उसका अंत नज़दीक है । मेरी माँ हर दिन पहाड़ी से दोकुदामी (एक तरह की जापानी जड़ी-बूटी) की पत्तियाँ तोड़ कर लाया करती थी, और उन हरी पत्तियों को वैसे के वैसे ही घोट-उबाल कर मुझे और बहन को चाय के बदले पीने को देती थी । दोकुदामी हरी पत्ति की चाय की गंध बहुत तेज़ थी, लेकिन माँ का कहना था, कि यह शरीर से ज़हर निकालने की दवा है । शायद वो चाय काम कर गयी, क्योंकि मेरी बहन जो करीब तीन महीने से खड़ी होने लायक भी न थी, उसकी हालत में सुधार होने लगा और बाद में वो काम पर भी लौट गयी । जब तक उसके बाल नहीं आये वो अपना सिर स्कार्फ़ या टोपी से ढकती रही । उसके ज़ख्मों के निशान अब भी बाकि थे, इसलिए वो कभी बिना बाजू के कपड़े न पहनती और आज भी उसकी छिदी हुई बाजू गड्ढेदार है ।
●ज़िंदगी युद्ध के बाद
युद्ध समाप्त होने की ख़बर मुझे लोगों से मिली । यह ख़बर सुन कर मुझे बिल्कुल यकीन न हुआ । बचपन से हमें सिखाया गया था, कि जापान कभी हार नहीं सकता और मुझे भी पूरा यकीन था । प्रसारण केन्द्र में काम करते समय भी हमेशा जीतने की ही बात होती थी, हारने का कभी कोई ज़िक्र नहीं होता था । लेकिन जब मैंने सुना, कि नागासाकि में भी अणु-बम गिराया गया है, तो सोचा, अगर इसी तरह हम पर बार-बार बम गिराये जाने हैं, तो बेहतर होगा युद्ध समाप्त हो जाए ।
कामि-नागारेकावा कस्बे की इमारत इस्तेमाल लायक नहीं रही थी, इसलिए प्रसारण केन्द्र को आकि तहसील के फ़ुचू कस्बे में तोयो इंडस्ट्रीज़ कंपनी में स्थानांतरित कर दिया गया । मुझे बहन की देखभाल करनी थी, और तोयो इंडस्ट्रीज़ कंपनी दूर होने के कारण ट्रेन से आना-जाना पड़ता था । ठीक उन दिनों जापान में दुश्मन सेना आ पहुँची थी, और ऐसी अफ़वाहें थी, कि वो महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार कर सकती है, इसलिए मैंने प्रसारण केन्द्र की नौकरी छोड़ दी । उसके बाद, मैंने करीब एक साल तक पड़ोस की एक कंपनी में काम किया और फिर अपने शिक्षक की सिफ़ारिश से एक अन्य कंपनी में कुछ समय काम किया और उसके बाद मैंने शादी की ।
हालांकि 6 और 8 अगस्त को मैं हिरोशिमा शहर में ही थी, लेकिन अणु-बम से मुझे कभी कोई बड़ी बीमारी नहीं हुई । कहते हैं, कि ऐसी बीमारियाँ कभी भी हो सकती हैं, लेकिन मैंने कभी बीमारी के डर की बात अपने मुँह से नहीं निकाली । अगर बीमार पड़ी तो तब की तब देखेंगे । इससे भी ज़्यादा मैंने हमेशा यही सोचा, कि मैं भविष्य में क्या करूंगी ।
●शाँति की कामना
अब तक मैं अणु-बम के बारे में बात नहीं करना चाहती थी । हालांकि मैं हर साल अणु-बम पीड़ितों की स्मारक पर श्रदांजली देने जाती हूँ, लेकिन शुक्केइएन उद्यान दोबारा कभी नहीं गयी, जहाँ मैं 6 अगस्त को थी । अब शुक्केइएन उद्यान एक सुंदर पार्क बन गया है, लेकिन अगर मैंने तालाब के ऊपर बना वो गोल पुल दोबारा देखा, तो मुझे उस दिन की दहशत फिर याद आ जायेगी, इसलिए मैं वहाँ नहीं जाना चाहती । उसे याद करते ही, मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं और शब्द गले में अटक जाते हैं ।
अणु-बम का शिकार हुए बहुत से लोग अब इस दुनिया में नहीं रहे हैं । गिनती के ही लोग बचे हैं जो इस बारे में बात कर सकें । मेरी भी उम्र होती जा रही है, लेकिन अब नरक के उस दृश्य की बात छिड़ी है, जो मुझे अब भी अच्छी तरह याद है, तो मैं युवाओं से कहना चाहूँगी, कि परमाणु हथियार दोबारा इस्तेमाल न करने दिये जायें । मेरा पोता प्राथमिक स्कूल में है और वो युद्ध तथा शाँति में दिलचस्पी रखता है । वो इतना बड़ा हो गया है, कि मेरे से पूछता है, "दादी, क्या आपने अणु-बम विभीषिका झेली थी" । मैं सच्चे दिल से प्रार्थना करती हूँ, कि एक ऐसी दुनिया बने, जहाँ किसी को भी ऐसी तकलीफ़ें न झेलनी पड़ें ।
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